महाराजा अग्रसेन जी
महाराजा अग्रसेन अग्रकुल के प्रवर्तक और अग्रवालों की आदि भूमि अग्रोहा के संस्थापक थे l वे विश्व की उन महान विभूतियों में थे, जो अपने सर्वजनहिताय कार्यों द्वारा युग-युग के लिए अमर हो जाते हैं l संस्कृत में एक कहावत है – कीर्ति यस्य स जीवति – संसार में जिस का यश है, वही जीवित है और महाराजा अग्रसेन इसी प्रकार की विभूति थे l
महाराजा अग्रसेन वर्तमान में हजारों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए किन्तु वे आज भी अपनी प्रजावत्सलता, धार्मिकता,न्याय, श्रेष्ठ प्रवृतियों और आदर्शों के कारण जाने जाते हैं l उन्होंने सहकारिता तथा समता के आधार पर एक ईंट- एक रुपया जैसी प्रणाली का प्रवर्तन कर जिस सुखी समाज की स्थापना का आदर्श अपने राज्य में रखा, उसका उदाहरण विश्व में अन्यत्र मिलना कठिन है l वास्तव में वे अपने सत्कार्यों द्वारा युगों युगों तक मानव जाति को प्रेरणा देते रहेंगे और उनके गुणों, आदर्शों व महान कार्यों को काल की सीमा में आबद्ध करना कठिन है l
महाराजा अग्रसेन का जीवनवृत और उसके स्त्रोत
प्राचीन भारत में इतिहास लेखन की क्रमबद्ध परम्परा न होने एवम विदेशी आक्रान्तायों द्वारा इतिहास की अधिकांश सामग्री नष्ट अथवा क्षत-विक्षत केर दिए जाने के कारण अधिकांश प्राचीन महापुरुषों के जीवन के सम्बन्ध में प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती l परिणाम स्वरूप उनके अवतरण,अस्तित्व अथवा कार्यों के सम्बन्ध में तरह-तरह के विवादास्पद प्रसंग मिलते हैं l उनके सम्बन्ध में जो भी सामग्री पुरातत्व-अवशेषों, लोकगाथाओं, जनश्रुतियों, किंवदन्तियों किवदंतियों तथा पौराणिक ग्रंथों के माध्यम से मिलती है, उन्हीं के आधार पर उनके जीवन कार्यों, उपलब्धियों आदि का मूल्यांकन सम्भव होता है l
महाराजा अग्रसेन जी के सम्बन्ध में विभिन्न पौराणिक ग्रंथों, व्याख्यान्यों, भाटों के गीतों, जनश्रुतियों, किंवदन्तियों, वंशावलियों आदि के रूप में जो कुछ भी उपलब्ध है, उसे यहाँ दिया जा रहा है l महाराजा अग्रसेन के जीवन चरित का प्रमुख आधार अब तक महालक्ष्मी व्रत कथा, उरुचरितं, भाटों की वंशावलियां रही हैं किन्तु सन 1991 में महर्षि जैमिनिकृत श्री अग्रउपाख्यान ग्रंथ के मिलने से महाराजा अग्रसेन के जीवन चरित में एक और नई कड़ी जुड़ गयी है, जिसे शास्त्रों में ‘जय-प्रसंग’ के नाम से भी वर्णन किया गया है l यह अग्रउपाख्यान मूल रूप से ताड़पत्र पर है, जिसे अदृश्य केसरिया स्याही में लिखा गया है जो पानी के सम्पर्क में आने पर दिखती है l इस में कुल 27 अध्याय हैं जिनमें महाराजा अग्रसेन जी के जीवन चरित्र, उनकी नीतियों एवम शिक्षाओं का वर्णन किया गया है l अग्रोहा में मिले पुरातात्विक अवशेषों एवम अन्य ग्रन्थों में उल्लिखित विवरणों से यह प्रमाणित हो चुका है कि प्राचीन समय में अग्रोहा राज्य का अस्तित्व था और उसकी स्थापना अग्रसेन नामक किसी राजा ने की थी l अत: अग्रसेन जी का अस्तित्व स्वयं प्रमाणित है l
जन्म, वंश और शिक्षा
श्री अग्र उपाख्यान के अनुसार महाराजा अग्रसेन का जन्म इक्ष्वान्कु कुल में प्रतापनगर के राजा वल्लभसेन के यहाँ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा को वैदर्भीसुता महारानी भगवती की कोख से द्वापर युग की अंतिम वेला में हुआ l वर्तमान काल गणना के अनुसार ईस्वी सन 2020 में यह समय 3155 ई.पू. (5175 वर्ष पूर्व) था तथा यह वही वंश था, जिसमे महाराजा मानधाता, दिलीप, राजा रघु, दशरथ, भगवान राम जैसे यशस्वी राजा हुए l इसी वंश में भगवान राम के पुत्र कुश की कुल परम्परा में महाराजा अग्रसेन जी का आविर्भाव हुआ l
महाराजा अग्रसेन के जन्मकाल के सम्बन्ध में यह द्रष्टव्य है कि अग्रउपाख्यानम के अनुसार जब अग्रसेन महाभारत के युद्ध में भाग लेने गए थे, उस समय उनकी अवस्था 16 वर्ष की थी l वर्तमान काल गणना के अनुसार महाभारत का युद्ध 3139 ई.पूर्व अर्थात वर्तमान से 5159 वर्ष पूर्व हुआ था l अत: उनका जन्मकाल 3155 ई.पूर्व. अर्थात वर्तमान से 5175 वर्ष पूर्व मानना उचित एवम तर्कसंगत होगा क्योंकि उपलब्ध विवरण के अनुसार महाराजा अग्रसेन की भेंट महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठर से हुई थी और उनके राज्य भार सम्भालने के समय कलियुग का प्रारम्भ हो चुका था तथा उन्होंने 108 वर्ष की अवस्था तक कलियुग में राज्य किया l भगवान श्रीकृष्ण का जन्मकाल, गीतोपदेश और पांडवों के राज्य का समय भी वर्तमान इतिहासकारों के अनुसार लगभग यही था और कलियुग का प्रारम्भ काल 3102 ई.पू. (वर्तमान में 5122 वर्ष) भी इसी समय था l अत: इन सब तथ्यों के आधार पर महाराजा अग्रसेन का द्वापर-कलियुग के संधि काल में पैदा होना, महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण तथा युधिष्ठर से भेंट तथा कलियुग में 108 वर्ष की अवस्था तक राज्य – इन सब बातों में काफी साम्य बैठता है, अत: उनका जन्मकाल 3155 ई.पू. (वर्तमान में 5175 वर्ष पूर्व ) मानना युक्ति संगत प्रतीत होता है l
अग्रसेन जी के जन्म पर परिवार में भारी खुशियाँ मनाई गई और बड़े होने पर महर्षि के आश्रम में उन्होंने विभिन्न विधाओं की शिक्षा पाईl वहां उन्होंने छहों शास्त्र, वेदों आदि के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्रोंके संचालन की भी विधिवत शिक्षा प्राप्त की l
जब अग्रसेन 16 वर्ष के थे, तभी महाराजा वल्लभसेन को पाण्डवों की ओर से महाभारत युद्ध में भाग लेने का निमन्त्रण प्राप्त हुआ l इस युद्ध में जब अग्रसेन जी ने भी महाराजा वल्लभसेन जी के साथ जाना चाहा तो महाराजा ने उन्हें रोका तथा कहा कि अभी तुम 16 वर्ष के किशोर हो, तुम्हारा युद्ध में जाना उचित नहीं है किन्तु कुमार अग्रसेन के यह कहने पर कि उन्होंने अपने गुरु ताण्डव से जो कुछ सीखा है, उसे प्रदर्शित करने का यही उचित समय है l अत: माता भगवती की प्रेरणा से उन्हें युद्ध में शामिल होने की आज्ञा मिल गई और वे अपने पिता के सहयोगी के रूप में महाभारत युद्ध में सम्मिलित हुए l
इस युद्ध में महाराजा वल्लभसेन ने अपूर्व शोर्य का प्रदर्शन किया किन्तु युद्ध के 10वें दिन भीष्म पितामह के प्रबल आक्रमण से वे आहत हो अपने रथ से गिर पड़े l कुमार अग्रसेन ने जब अपने पिता को आहत होते हुए देखा तो उन्होंने भीष्म पितामह को ललकारते हुए उन पर जबरदस्त बाणों का प्रहार किया और 18 दिनों तक युद्ध में निरंतर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते रहे l
युद्ध के समाप्त होने पर अपने पिता की मृत्यु से शोक संतप्त कुमार अग्रसेन को भगवान श्रीकृष्ण ने सांत्वना प्रदान की और कहा कि आपके पिताश्री ने धर्म युद्ध में अथाह शोर्य का प्रदर्शन करते हुए वीरगति प्राप्त की है l अत: शोकग्रस्त होना उचित नहीं है l इस प्रकार धैर्य बंधाये जाने पर कुमार अग्रसेन ने अपने पिता के श्राद्ध आदि कर्म किए तथा महाराजा युधिष्ठर से अपने राज्य प्रतापनगर जाने की आज्ञा चाही l महाराजा युधिष्ठर ने युद्धभूमि में प्रदर्शित उनके शौर्य-पराक्रम की प्रशंसा की तथा भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें छाती से लगा अपना आशीर्वाद प्रदान किया l इसके बाद प्रतापनगर पहुंच कर उन्होंने शोक संतप्त माताश्री एवम अन्य बंधु-बांधवों को धैर्य बंधाया तथा पिताश्री की दिवंगत आत्मा की शांति हेतु धर्म सम्बन्धी अनुष्ठान किए l
आग्रेय राज्य की स्थापना
महाराजा वल्लभसेन की मृत्यु होने पर राज्य के मंत्रियों, ब्राह्मणों, कुलपुरोहित एवम प्रजाजनों ने जब सर्वसम्मति से अग्रसेन को उनके उत्तराधिकारी के रूप में राजा के पद पर अभिषिक्त करना चाहा तो अग्रसेन के चाचा कुंदसेन ने उसका विरोध किया तथा उन्हें बंदी बनाकर मारने का उपक्रम रचा किन्तु अपने एक विश्वसनीय अमात्य की सहायता से वे बच निकले और एक सुरिक्षत मार्ग से वन में चले गए l वहां उनकी भेंट महर्षि गर्ग से हुई l वे उन्हें अपने आश्रम में ले गए तथा उन्हें राज्य कीर्ति, यश एवम सभी प्रकार के मनोरथ पूर्ण होने का आशीर्वाद प्रदान किया l उन्होंने अग्रसेन को राजा सुरभ का वृतांत भी सुनाया, जिन्हें मेधामुनि के सहयोग से खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त हो गया था l उन्होंने अग्रसेन जी को राज्य प्राप्ति के लिए महालक्ष्मी की आराधना करने का भी परामर्श दिया l
महर्षि गर्ग मुनि के कहने के अनुसार महाराजा अग्रसेन ने महालक्ष्मी के विग्रह की स्थापना कर उनकी तपस्या प्रारम्भ कर दी l उनकी तपस्या से प्रसन्न हो महालक्ष्मी ने उन्हें दर्शन दिया तथा वर मांगने को कहा l अग्रसेन जी ने महालक्ष्मी से सदैव उनके चरणों में भक्ति बने रहने तथा हमेशा उनके बने रहने का वरदान माँगा l महालक्ष्मी ने उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करने का वरदान दिया l महालक्ष्मी से वरदान पाकर अग्रसेन महर्षि गर्ग के आश्रम में लौटे तो उन्होंने उन्हें महाराजा मरूत का दृष्टांत देते हुए उद्देश्य की पूर्ति हेतु यज्ञ करने का आह्वान किया तथा बताया कि ऐसा करने से उन्हें भूमि में दबे अक्षय स्वर्ण कोष की भी प्राप्ति होगी l
अग्रसेन ने उनकी आज्ञानुसार यज्ञ किया और उसके साथ ही उन्हें भूमि में दबे विपुल स्वर्णकोषकी भी प्राप्ति हुई l महर्षि गर्ग ने इसके साथ ही उन्हें अपने आश्रम के निकट विशाल भूमि पर नए राज्य की स्थापना के लिए प्रेरित किया l उनके आदेशानुसार अग्रसेन ने सब प्रकार के सुसम्पन्न आग्रेय राज्य की स्थापना की l महर्षि ने स्वयं उनका राज्याभिषेक किया l महाराजा अग्रसेन द्वारा अग्रोहा में राज्य स्थापित करने के मूल में महालक्ष्मीव्रत कथा में अग्र उपाख्यान से भिन्न एक अन्य कथा का भी उल्लेख मिलता है l उसके अनुसार अग्रसेन जब लोहागढ़ में अपने पिता का पिंडदान कर एक जंगल से लौट रहे थे कि वहां एक अद्भुत घटना घटी l एक सिंहनी उसी समय प्रसव कर रही थी l अग्रसेन के लाव-लश्कर से उसके प्रसव में बाधा पड़ी तो सिंहनी के क्रुद्ध बच्चे ने जन्म लेते ही राजा के हाथी पर प्रहार किया और अकल्पनातीत शौर्य को प्रदर्शित किया l यह देख कर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ l राजा को आश्चर्य में पड़े देख राजा के साथ चल रहे धर्माचार्यों ने कहा कि वास्तव में यह स्थान वीर प्रसूता है l आप अपने राज्य की राजधानी यहीं बनाएं l अग्रसेन उस भूमि के शौर्य, पराक्रम, प्राकृतिक स्वरूप तथा धर्माचार्यों के परामर्श से बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने वहीं अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया l
महाराजा अग्रसेन के एक ईंट – एक रुपये की परम्परा का सूत्रपात, सुशासन की प्रशंसा सुन आस-पास के क्षेत्रों से लोग वहां बसने के लिए आने लगे l महालक्ष्मीव्रत कथा के अनुसार महाराजा अग्रसेन ने अपने आग्रेय राज्य में यह रीति प्रारम्भ की, कि उनके राज्य में जो भी नव आंगतुक बसने के लिए आए, राज्य में बसने वाले सभी नागरिक उसे सम्मानपूर्वक 1-1 रुपया व 1-1 ईंट भेंट करें l राजा अग्रसेन की आदर्श राज्य व्यवस्था के कारण आग्रेय राज्य में बसने वाले परिवारों की संख्या बढ़ कर लगभग एक लाख हो गई l अत: उनके राज्य में जो भी नागरिक बसने आता, उसे समान रूप में मकान बनाने के लिए एक लाख ईंटे और व्यवसाय चलाने के लिए एक लाख रूपये प्राप्त हो जाते थे l यह व्यवस्था सभी नागरिकों पर समान रूप से लागु थी, इसलिए उनके राज्य में सब समान थे l किसी प्रकार का छोटे बड़े का भेदभाव न था l वहां कोई गरीब एवम असहाय नहीं था l सबको रोजी-रोटी और आवास की सुविधा समान रूप से उपलब्ध थी l उस प्रकार उन्होंने अभावजनित समस्त विषमताओं तथा उससे उत्पन्न होने वाले दोषों से अपने राज्य को मुक्त कर दिया था l उनके राज्य की यह प्रणाली विश्व में अदभुत थी l
इसके अतिरिक्त महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य में यह व्यवस्था भी प्रारम्भ की थी कि राज्य का कोई नागरिक दुर्देववश यदि आजीविका से विहीन हो जाए तो प्रजाजन स्वयं उसका सहयोग करें, ताकि वह सम्मानपूर्वक जीवन जी सके क्योंकि अभावों से ही राज्य में अपराध और अनैतिक प्रवृतियां उत्पन्न होती हैं l
माधवी से विवाह
आग्रेय गणराज्य की स्थापना के बाद महर्षि गर्ग ने राजा अग्रसेन को नागलोक में जाकर नागराज महीधर की कन्या माधवी से विवाह करने की आज्ञा दी l महाराजा अग्रसेन उनकी आज्ञानुसार महीधर की राजधानी मणिपुर गए l वहां उन्होंने एक मनोहारी उपवन में निवास किया l वहीं उनकी भेंट माधवी से हुई, जो अपनी सहेलियों के साथ सरोवर में स्नान करने हेतु आई हुई थी l संयोगवश उसी समय एक सिंह के आने से जब माधवी और उसकी सहेलियाँ भयभीत हो गई, तो महाराजा अग्रसेन ने सिंह के चारों ओर बाणों का घेरा बना दिया l इससे माधवी और सहेलियों की प्राणरक्षा हो गई तथा सिंह भी सुरिक्षत रूप से बच गया l
इस प्रकार के अनुपम शौर्य, पराक्रम और बुद्धिबल को देखकर माधवी महाराजा अग्रसेन के प्रति अभिभूत हो गई तथा मन ही मन उसने उन्हें पति के रूप में वरण कर लिया किन्तु माधवी के पिता महीधर उसका विवाह राजा इन्द्र से करना चाहते थे l अत: महाराजा अग्रसेन को माधवी के साथ विवाह के लिए यातनाओं से होकर गुजरना पड़ा l उन्हें तरह तरह की परीक्षाएं देनी पड़ी किन्तु अंतत: महारानी नागेंदरी एवम प्रजाजन के परामर्श से उन्होंने अपनी पुत्री माधवी का विवाह महाराजा अग्रसेन से कर दिया और उन्होंने इस ख़ुशी में अपने राज्य के एक तल का नाम अग्गरतल्ला करने की घोषणा की, जो वर्तमान त्रिपुरा की राजधानी अग्गरतल्ला है l
इसके साथ ही महाराजा महीधर ने जब अपने समाज में प्रचलित परम्परा के अनुसार अपनी अन्य कन्याओं का भी विवाह अग्रसेन से करना चाहा तो महाराजा अग्रसेन ने एकपत्नीव्रतके आदर्श का पालन करते हुए ऐसा करने से इंकार कर दिया तथा नारी जाति के प्रति अपनी सम्मान भावना को प्रकट किया l
महाराजा अग्रसेन की आदर्श राज्य व्यवस्था
महारानी माधवी से विवाह कर महाराजा अग्रसेन निर्द्वन्द्व भाव से राज्य करने लगे l उनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से सुखी थी l किसी को किसी वस्तु का आभाव न था l वहां निरंतर लक्ष्मी एवम अन्य देवी देवताओं की आराधना चलती रहती थी l महाराजा स्वयं चारों वर्णों को उनके अपने कर्म में स्थापित कर सदैव धर्मपूर्वक उनकी रक्षा करते थे l इसके अलावा उनके राज्य में यज्ञ-यज्ञादि धर्म-कर्म निरंतर चलते रहते थे, जिससे वहां का वातावरण अत्यंत पवित्र रहता थाl
देवराज इन्द्र के साथ युद्ध
महाराजा अग्रसेन के इस प्रकार के सुख-समृद्धिपूर्ण राज्य को देख कर देवराज इन्द्र को इर्ष्या हो गई और उनके राज्य में वर्षा बंद कर दीl इससे अन्न का उत्पादन बन्द हो गया तथा प्रजा हाहाकार करने लगी l महाराजा अग्रसेन ने जनता के कष्ट निवारणार्थ अपने राजकोष के द्वार जनता के लिए खोल दिए l उन्होंने राज्य में जल की व्यवस्था के लिए नहरें बनवाई l इस तरह से अग्रोहा राज्य पुन: धन-धान्य की वर्षा से सम्पन्न होने लगा l किन्तु देवराज इन्द्र को यह सब कुछ अच्छा नहीं लगा और अग्निदेव को आदेश प्रदान कर वहां की समस्त फसलों को जलवा दिया l देव प्रकोप से रक्षा का अन्य कोई उपाय न देख उससे निवृति के लिए महाराजा अग्रसेन ने एक बार पुन: महालक्ष्मी की उपासना का सहारा लिया l महालक्ष्मी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो उन्हें इन्द्र के भय से मुक्त होने का वरदान प्रदान किया l उनसे वरदान पा महाराजा अग्रसेन ने इन्द्र से युद्ध का आह्वान किया l दोनों के बीच प्रबल युद्ध हुआ किन्तु देवगुरु वृहस्पति के कहने पर उन्होंने देवराज इन्द्र से मैत्री कर ली तथा इन्द्र ने उन्हें मानवमात्र में अग्रसेन नाम से विख्यात होने तथा तीनों लोकों में यशस्वी होने के वरदान दियाl इस प्रकार महाराजा अग्रसेन ने अपनी साधना से देवों को अपने अनुकूल किया तथा प्रजा की भी रक्षा की l उनके प्रयासों से उनका राज्य पुन: सुख-समृधि की ओर बढने लगा l
देव प्रकोप से रक्षा का अन्य कोई उपाय न देख उससे निवृति के लिए महाराजा अग्रसेन ने एक बार पुन: महालक्ष्मी की उपासना का सहारा लिया l महालक्ष्मी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न हो उन्हें इन्द्र के भय से मुक्त होने का वरदान प्रदान किया l उनसे वरदान पा महाराजा अग्रसेन ने इन्द्र से युद्ध का आह्वान किया l दोनों के बीच प्रबल युद्ध हुआ किन्तु देवगुरु वृहस्पति के कहने पर उन्होंने देवराज इन्द्र से मैत्री कर ली तथा इन्द्र ने उन्हें मानवमात्र में अग्रसेन नाम से विख्यात होने तथा तीनों लोकों में यशस्वी होने के वरदान दियाl इस प्रकार महाराजा अग्रसेन ने अपनी साधना से देवों को अपने अनुकूल किया तथा प्रजा की भी रक्षा की l उनके प्रयासों से उनका राज्य पुन: सुख-समृधि की ओर बढने लगा l
महाराजा अग्रसेन द्वारा यज्ञों का आयोजन एवम अहिंसा धर्म का ग्रहण
महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्र और एक पुत्री हुई l पुत्रों के नाम विभु, विक्रम, अजेय, विजय, अनल, नीरज, अमर, नगेन्द्र, सुरेश, श्रीमंत, सोम, धरनीधर, अतुल, अशोक, सुदर्शन, सिद्धार्थ, गणेश्वर तथा लोकपति थे l कन्या का नाम ईश्वरी था, जिसका विवाह कशी नरेश महाराजा महेश से हुआ, जो मोक्ष धर्म के पालन के कारण ब्रह्मस्वरूप महामुनि के रूप में विख्यात हुए l अग्रसेन के अन्य पुत्रों के विवाह नागराज वासुकी की कन्याओं से हुए l नागराज वासुकी ने जब अपना राज्य अग्रसेन को भेंट स्वरूप देना चाहा तो उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया तथा लोक के समक्ष अप्रतिग्रहता का आदर्श प्रस्तुत किया l महाराजा अग्रसेन का वंश जब सब प्रकार से पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न और विशाल हो गया तो उन्होंने अपने कुल की वृद्धि, उसे मर्यादित तथा व्यवस्थित रूप देने एवम कुल के शील-आचरण आदि की रक्षा के लिए वंशकर यज्ञ करने का निश्चय किया, उनका यह निर्णय उनके यश, धर्म तथा मर्यादा के सर्वथा अनुकूल था l
महाराजा अग्रसेन के राज्य में 18 कुल थे, जिनके प्रतिनिधियों की सहायता महाराजा शासन का संचालन करते थे l इन्हीं 18 कुलों के प्रतिनिधियों को यज्ञ का यजमान बनाया गया और 18 यज्ञ किए l महर्षि गर्ग की निर्देशन में यज्ञ की सम्पूर्ण तैयारियां सम्पन्न हुई l महर्षि गर्ग यज्ञ के आचार्य बने और महाराजा अग्रसेन ने यज्ञ के यजमान का स्थान ग्रहण किया l अन्य मुनियों को भी यज्ञ का ऋत्विज बनाया गया l चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा तिथि थी l यज्ञ में सभी राजाओं तथा सम्मानित प्रजाजन को भी आमंत्रित किया गया l यज्ञ की तैयारियां सब प्रकार से पूर्ण होने पर बैसाख मास के शुक्ल पक्ष में आश्लेषा नक्षत्र में यज्ञ की आहुतियों से विधिवत यज्ञ का प्रारम्भ हुआ l देवताओं को हविष्य प्रदान किया गया l
इस प्रकार यज्ञ के चलते जब 17 दिन सम्पन्न हो गए तो महाराजा अग्रसेन को यज्ञ में होने वाली पशुहिंसा तथा बलि को देखकर उससे घृणा हो गई l उन्होंने सोचा, यज्ञ तो धर्म की कामना से किया जाता है किन्तु उसमे यदि पशुबलि दी जाती है तो वह अधर्मपूर्ण है l ऐसा सोचकर उन्होंने आगे यज्ञ न करने का निश्चय किया l सभी मुनियों बंधु-बांधवों ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि यज्ञ में पशुबलि धर्मविरुद्ध नहीं है और क्षत्रिय का यह धर्म है किन्तु अग्रसेन अपने निश्चय से विमुख नहीं हुए l उन्होंने कहा कि सभी जीवों को अपने प्राण प्रिय होते हैं l यदि हम किसी को जीवनदान नहीं दे सकते तो हमें उसके प्राण लेने का भी कोई अधिकार नहीं है l वे किसी भी ऐसे धर्म कर्म को स्वीकार नहीं कर सकते, जिसमें निरीह जीवों की बलि दी जाती है l अगर पशुओं की हत्या करने तथा काटने वाले ही स्वर्ग में जाएंगे तो फिर नरक में कौन जाएगा ? सच्चे क्षत्रिय का धर्म तो जीव मात्र की रक्षा करना है न की हत्या करना l पशुओं की हत्या तथा बलि से मनुष्य नरक में जाता है l अत: यदि उनका क्षत्रिय धर्म इस पवित्र कर्म में आड़े आता है तो वे उसे स्वीकार नहीं कर सकते तथा ऐसा कहकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को त्याग वैश्य धर्म को ग्रहण करने की घोषणा कर दी क्योंकि प्रजा का पालन ही वैश्य धर्म है और उनके सभी कर्म – कृषि, गोपालन, उधोग-व्यापार आदि जीवमात्र के निर्वाह में सहायक होते हैं l उन्होंने बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में कहा –
“यज्ञ में पशुहिंसा से मुझे घृणा हो गई है l अत: मैं अब अपने समस्त बंधु-बांधवों, पुत्रों, कन्याओं, कुटुम्बियों तथा वैश्यकुलों को यही उपदेश देता हूँ कि वे कोई हिंसा न करें l”
महाराजा अग्रसेन के इस दृढ निश्चय एवम वैश्यवर्ण में परिवर्तन से 18वां यज्ञ बिना पशु-बलि के सम्पन्न हुआ l
इस प्रकार महाराजा अग्रसेन ने 18 यज्ञों द्वारा न केवल अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किया अपितु उन्होंने 18 ऋषियों के नाम पर 18 यज्ञाधिपतियोंको एक-एक गोत्र की संज्ञा देकर 18 गोत्र बना दिए तथा यह नियम बना दिया कि भविष्य में इन्हीं 18 गोत्रों के मध्य निज गोत्र को छोड़ कर परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध होंगे l इस प्रकार महाराजा अग्रसेन एक नए वंश के प्रवर्तनकर्ता बने, जो बाद में उनसे सम्बन्धित होने के कारण अग्रवाल कहलाया l उनका यह कार्य ठीक उसी प्रकार से था, जिस प्रकार गुरु गोविन्दसिंह ने समाज के लोगों को संगठित कर एक नए सिक्ख समुदाय की स्थापना कर दी थी l
इसके साथ ही उन्होंने अपने समाज में 18 गोत्रों का प्रवर्तन कर तथा समान गोत्र में परस्पर विवाह का निषेध कर रक्त की पवित्रता बनाए रखने एवम उच्च चारित्रिक गुणों के विकास का महत्वपूर्ण कार्य किया l उनका यह कार्य आधुनिक सिद्धांत पैतृकता के सिद्धांत के अनुसार भी पूर्णतया सम्यक था, जिसमें भिन्न गुणों वाले व्यक्ति से विवाह को ही श्रेष्ठ वंशवृद्धि के लिए उपयुक्त माना गया है l
महाराजा अग्रसेन की इसी संगठन क्षमता का परिणाम था कि आज भी अग्रवाल जाति हजारों वर्षों बाद एक संगठन के रूप में विधमान है और उसकी गणना विश्व की श्रेष्ठ जातियों में होती है l वास्तव में महाराजा अग्रसेन बड़े ही दूरदर्शी एवम कुशल सम्राट थे l
आदर्श प्रजापालक
महाराजा अग्रसेन आदर्श प्रजापालक शासक थे l उनके समय यधपि कुलीन शासन का प्रचलन था किन्तु उन्होंने अपने राज्य को 18 कुलों में विभक्त कर तथा उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों की सहायता से शासन का संचालन कर राजतन्त्र में भी लोकतंत्र की प्रतिष्ठा की l वे अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन करते थे, इसलिए कभी कभी उनके कुलाधिपतियों को ही उनके पुत्र मानने का भ्रम हो जाता है l वे चारों वर्णों को अपने अपने धर्म में स्थापित कर उनकी रक्षा करते थे l उनके राज्य में सभी जातियों- धर्मों के लोगों को समान अधिकार प्राप्त थे l किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव न होता था l उनके काल में कृषि, गौरक्षा, वाणिज्य आदि कर्म सुचारू रूप से होते थे l गायें प्रचुर मात्रा में दूध देती थी l यज्ञों से समस्त वातावरण पवित्र रहता था l वृक्षों को काटना निषिद्ध था, जिससे पर्यावरण की रक्षा में सहायता मिलती थी l
महाराजा अग्रसेन का निर्वेर भाव
महाराजा अग्रसेन वसुधैव कुटुम्बकम के उपासक थे l वे सबके प्रति करुणा, प्रेम, समता की भावना रखते थे l उन्होंने वैश्य होते हुए भी जिस प्रकार शासन के उच्च मापदण्डों को स्थापित किया था तो आसपास के क्षत्रिय राजाओं को इर्ष्या होने लगी l उन्होंने इसे क्षत्रिय धर्म का अपमान माना तथा मालव के राजा दिग्गजसेन के नेतृत्व में आग्रेय पर आक्रमण कर दिया l महाराजा अग्रसेन के ज्येष्ठ पुत्र विभु तथा चाचा शौर्यसेन ने उनका वीरतापूर्वक मुकाबला किया तथा राजा दिग्गजसेन एवम अन्य राजाओं को बंदी बना उन्हें महाराजा अग्रसेन के समक्ष उपस्थित किया किन्तु महाराजा अग्रसेन ने क्षमाशीलता तथा उदारता का भाव प्रदर्शित करते हुए यह कह कर क्षमा कर दिया कि वे भविष्य में युद्ध जैसा हिंसक कार्य बिल्कुल न करें तथा उनकी बुद्धि धर्म-कर्म में रत रहे l दिग्गजसेन एवम अन्य राजाओं ने महाराजा अग्रसेन के इस व्यवहार की प्रशंसा की और पारस्परिक शत्रुता भाव त्याग मित्रवत आचरण करने लगे l इस प्रकार उन्होंने आदर्श प्रस्तुत किया किहिंसा से कभी हिंसा शांत नहीं होती, केवल प्रेम भाव से शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है l
लोकहित : प्रजारक्षण को सर्वोपरि अधिमान
महाराजा अग्रसेन प्रजाहित की भावना से ओतप्रेत थे l वे प्रजा के कष्ट निवारण हेतु बड़े से बड़ा कष्ट सहने और त्याग करने को तत्पर रहते थे l यधपि उनके राज्य में प्रजा सुखी थी किन्तु कलियुग के प्रभाव से जब राज्य में तरह तरह के अपराध होने लगे तो उन्होंने राज्य सुखों को त्याग पृथ्वी पर सुख शांति की स्थापनार्थ स्थान-स्थान पर जाकर उत्पीड़ित प्रजा का रक्षण किया तथा अपने प्रभावपूर्ण प्रवचनों तथा उपदेशों से समाज में सदभावपूर्ण वातावरण बनाया l उन्होंने यज्ञों द्वारा देवताओं को परितुष्ट किया, अपने श्रद्धायुक्त सत्कर्मों से पितरों को, यथायोग्य अनुग्रह से दीनदुखियों तथा आकांक्षित योग्य वस्तुयों की पूर्ति द्वारा सम्पूर्ण प्रजा को सुखी किया l वस्तुत: उनका पूरा जीवन लोकहित की भावना से प्रेरित था l
राज्य त्याग और महालक्ष्मी की आराधना
महाराजा अग्रसेन ने इस प्रकार लोकहित का संवर्द्धन करते हुए 108 वर्ष की अवस्था तक राज्य किया और उसके बाद उन्होंने अपने सभी स्वजन, सभासदों की मन्त्रणा से राज्य का भार अपने ज्येष्ठ पुत्र विभू को सौंप दिया तथा साथ ही उसे राजधर्म का सारगर्भित उपदेश दिया l उन्होंने विभु को उपदेश देते हुए कहा कि लक्ष्मी चंचल है l अत: व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह धन के प्रति आसक्ति न रखकर लोकहित द्वारा सच्चे यश का अर्जन करे, सदाचार की वृद्धि करे, न्याय नीति का पालन तथा पुरुषार्थ के द्वारा जीवन में आने वाली विपतियों के निवारण का उपाय करे l
इसके लिए आवश्यक है कि राजा बुद्धिमान, शूरवीर, न्याय-नीति को जानने वाला तथा पक्षपातरहित होकर प्रजा का पालन करने वाला हो l इस हेतु उन्होंने राजा को भी स्वयं नियमों एवम विधान से बंधा हुआ बताया l
उन्होंने कहा कि वर्ण धर्म से भी व्यक्ति का कर्म सर्वोपरि है तथा यदि शुद्र भी श्रेष्ठ आचरण वाला हो तो वह द्विजाति से बढकर है l श्रेष्ठता का आधार मनुष्य का जन्म नहीं, कर्म है l जनता प्राय: राजा का ही अनुसरण करती है, अत: राजा का कर्तव्य है कि वह सदैव धर्म मार्ग पर चले l जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी और अन्याय से पीड़ित रहती है, वह राजा धिक्कार योग्य है l जो राजा सदैव प्रजा के कष्ट निवारण के लिए तत्पर, पुरुषार्थ से सम्पन्न एवम सत्यपूर्ण व्यवहार से प्रेरित है, वही वास्तव में राजा कहलाने का सच्चा अधिकारी है l इस प्रकार विभूसेन को राज्यभार सौपने के बाद महाराजा अग्रसेन ने महारानी माधवी के साथ वनगमन किया l
उसके बाद वे यमुना तट पर गए तथा वहां कुलदेवी महालक्ष्मी की कठोर आराधना की l उनकी आराधना तथा तपस्या से प्रसन्न हो लक्ष्मी ने उन्हें दर्शन दिए तथा उन्हें मुहंमाँगा वरदान देने को कहा l महाराजा अग्रसेन ने सदैव मन में उनकी भक्ति बने रहने तथा बुद्धि धर्म, सत्य और सयंम में बने रहने का आशीर्वाद माँगा तथा अपने वंश की वृद्धि और अभ्युत्थान की कामना की l उनकी अचल भक्ति तथा आराधना से प्रसन्न हो महालक्ष्मी ने उन्हें वरदान दिया कि उनका वंश सदैव तेज से परिपूर्ण और जगत विख्यात होगा l उनके यश में सम्पूर्ण विश्व आलोकित होगा l लोग महाराजा अग्रसेन के आदर्शों का अनुकरण करेंगे तथा उनकी यशोगाथा सर्वत्र गूजेंगी l वे स्वयं लक्ष्मी भी उनके वंशजों से संतुष्ट हो उन्हें राज्य, दीर्घायुष्य श्रेष्ठ पुत्र पौत्रादि प्रदान करेंगी एवम विश्व में उनके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा l जब तक अग्रवालों में मेरी पूजा होती रहेगी, सूर्य और चन्द्रमा बने रहेंगे, तब तक वह भी उनके कुल में बनी रहेंगी तथा कभी उनका त्याग नहीं करेंगी l
कहते हैं कि महाराजा अग्रसेन को कुलदेवी महालक्ष्मी का यह वरदान मार्गशीर्ष पूर्णिमा को प्रदान किया गया l इसलिए इस दिवस को अग्रवालों द्वारा महालक्ष्मी वरदान दिवस के रूप में भी मनाया जाता हैl
इस प्रकार लक्ष्मी महाराजा अग्रसेन तथा माधवी को वरदान दे अंतर्ध्यान हो गई तथा महाराजा अग्रसेन तथा महारानी माधवी ने उत्तमोत्तम ज्ञान द्वारा सनातन अक्षरधाम धर्म का वरण कर लिया l उसके बाद उनके पुत्र विभूसेन ने अपने श्रेष्ठ कार्यों द्वारा महाराजा की कीर्ति को बढाया l इस प्रकार महाराजा अग्रसेन ने उच्च आदर्शों से प्रेरित हो जीवन व्यतीत किया l वे सत्य, धर्म, प्रजापालन, पराक्रम, यश, बल, नीति, न्यायादी आदि सभी गुणों से सम्पन्न थे l वास्तव में जब तक यह पृथ्वी और आकाश रहेंगे, तब तक उनकी यह पवन यशोगाथा भी अमर रहेगी l
महाराजा अग्रसेन के आदर्श और उनकी देन
महाराजा अग्रसेन का जीवन आदर्शों से पूर्ण रहा l उन्हें अग्रवाल समाज के रूप में एक ऐसे समाज के प्रवर्तन का श्रेय प्राप्त है, जिसका देश के आर्थिक एवम औधोगिक विकास तथा लोकहितैषी कार्य में अप्रितम योगदान है l उन्होंने आर्थिक विकास को राज्य की प्रगति का मूलमंत्र माना, इसलिए उन्होंने तलवार का त्याग कर तराजू को ग्रहण किया l उनके आदर्शों का ही परिणाम है कि शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर भी अग्रवाल समाज की राष्ट्र के आर्थिक और औधोगिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है और इस समाज के मित्तल, जिन्दल, बजाज, मोदी, गोयनका जैसे घराने देश को आर्थिक दृष्टि से सशक्त बना विश्व में भारत का मान बढ़ा रहे हैं l
अहिंसा धर्म का प्रतिपादन
महाराजा अग्रसेन ने यज्ञों में पशु बलि और सब प्रकार की जीवहिंसा का विरोध किया और कहा कि अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है l जो धर्म क्रूर, नृशंस एवम हिंसा से युक्त है, वह कभी सच्चा धर्म नहीं हो सकता l इसलिए उन्होंने जीवमात्र के प्रति करुणा की भावना का प्रतिपादन किया तथा क्षत्रिय धर्म को त्याग वैश्य वर्ण को ग्रहण करने का भी संदेश दिया l उनका कहना था कि समुद्र भले ही अपनी मर्यादा को लाँघ दे, हिमालय अपनी शीतलता को त्याग दे, चन्द्रमा से उसकी प्रभा लुप्त हो जाए, किन्तु वे किसी निरपराध जीव की हत्या नहीं कर सकते l इसलिए उन्होंने पड़ोसी राज्यों के साथ भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार किया और कभी युद्ध का मार्ग नहीं अपनाया l इस प्रकार 5100 वर्ष पहले अहिंसा धर्म का पालन करने के कारण वे गौतम बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, गाँधी से भी आगे निकल जाते हैं और उनके आदर्शों का ही परिणाम है कि आज भी अग्रवाल जाति शाकाहारी जाति के रूप में प्रख्यात है और वे जीव मात्र की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं l
लोकतंत्री शासन की नींव
महाराजा अग्रसेन के समय वंशानुगत शासन राजतन्त्र का प्रचलन था किन्तु उन्होंने अपने राज्य को कुल 18 कुलों में विभक्त कर और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों की सहायता से शासन चला राजतन्त्र में भी लोकतंत्र की नींव रखी l उनके राज्य में हर कार्य जनता के परामर्श से सम्पन्न होते थे और उनमें लोकहित को सदैव प्रतिमान दिया जाता थाl
ट्रस्टीशिप की भावना
महाराजा अग्रसेन गाँधी जी की ट्रस्टीशिप भावना के साकार रूप थेl एक सब के लिए, सब एक के लिए उनके जीवन का मूलदर्शन था l उनका एक ईंट- एक रुपया का सिद्धांत इसी दर्शन का जीवन्त रूप था l उनके राज्य में नागरिक एक दूसरे के हितों के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तत्पर रहते थे l वे सर्वेभवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया और जिओ तथा जीने दो की भावना से ओतप्रोत थे l उन्होंने अपने राज्य के सम्पन्न लोगों को निर्धन एवम साधनहीन लोगों की सहायता के लिए आगे आने का आह्वान किया l आज हम जिन लोकतंत्र, अन्त्योदय, धर्मनिरपेक्षता, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व आदि सिद्धांतों की बात करते हैं, वे किसी न किसी रूप में उनके राज्य में विधमान थे l
आदर्श समाजवादी – व्यवस्था के जनक
महाराजा अग्रसेन ने यद्दपि समाजवाद का ढोल नहीं पीटा और न ही किसी ऐसे सिद्धांत का प्रतिपादन किया, किन्तु वे विश्व इतिहास में आदर्श समाजवादी व्यवस्था के जनक कहे जा सकते हैं l उन्होंने अपने राज्य में एक ईंट-एक रुपया जैसी आदर्श प्रणाली द्वारा एक ऐसे समाजवादी समाज की रचना में सफलता प्राप्त की, जहाँ गरीबी-अमीरी के बीच किसी प्रकार का भेद-भाव न था l सब को रोजी-रोटी और आवास की सुविधा उपलब्ध थी l सब सुखी और सम्पन्न थे l यह दृष्टव्य है कि समाजवादी देशों में जहाँ समतावादी समाज की रचना के लिए भीषण रक्तक्रांति का सहारा लेना पड़ा और निर्दोष लोगों के खून की होली खेली गई, वहां महाराजा अग्रसेन ने बिना किसी रक्तपात के पारस्परिक सहयोग पर आधारित एक ईंट-एक रुपया जैसी पद्धति के प्रवर्तन द्वारा उसे अपने राज्य में सम्भव कर दिखाया था l विश्व में शायद ही अन्य कोई शासन-प्रणाली हो, जो उनके इस आदर्श की समानता कर सके l
उनके पुत्र विभूसेन ने भी अपने राज्य में बसने हेतु आने वाले सभी नागरिकों को इस प्रकार की भेंट देने की परिपाटी को जारी रखा, जिससे आग्रेय राज्य में बन्धुत्व की भावना विकसित हुई l कोई भी नागरिक भूखा-नंगा नहीं था तथा राज्य विभिन्न प्रकार के अभावजन्य अपराधों से सुरक्षित हो गया l
पर्यावरण की पवित्रता पर बल
इसके साथ ही उन्होंने पर्यावरण की पवित्रता पर बल दिया l यज्ञों में पशुबलि का निषेध, जैविक हिंसा का विरोध, तुलसी पीपल आदि की पूजा, वृक्षारोपण, धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन आदि उनकी इसी व्यवस्था के अंग थे l यज्ञों से उत्पन्न हुआ धुआं जहाँ आस-पास के वातावरण को पवित्र और रोगमुक्त रखता था, वहां यज्ञों के कारण जनता अनाचार-अत्याचार आदि से बची रहती थी l उनके राज्य में जब कलियुग के प्रभाव से विभिन्न दुष्कर्मों की वृद्धि होने लगी तो उन्होंने राज्य में स्थान-स्थान पर घूम कर सदाचरण का उपदेश दिया l वे राज्य में नैतिकता के पक्षधर थे l
प्रजा के सुख की कामना
उनका मत था कि राज्य में विभिन्न प्रकार के अत्याचार, अनाचार इसलिए पनपते हैं, जब जनता दुःख से पीड़ित या अभावग्रस्त होती है l इसलिए उन्होंने सदैव प्रजा के कष्ट को दूर करना राज्य का सर्वोपरि धर्म माना और जब जब राज्य पर कष्ट आए, उन्होंने राजकोष के द्वार जनता के लिए खोल दिए l
नारी जाति के गौरव का सम्मान
महाराजा अग्रसेन ने सामाजिक – पारिवारिक रूप से भी आदर्श उपस्थित किए l उन्होंने राजा महीधर द्वारा अन्य कन्याओं का विवाह उनसे करने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और एक पत्नीव्रत के आदर्श को प्रस्तुत कर नारी जाति के प्रति सम्मान एवम गरिमा की भावना प्रदर्शित की l उनके अनुसार नारी ही कुल वृद्धि करती है, वहीं घर की मूर्तिमयी शोभा और सन्तति परम्परा का आधार है l वही देवों तथा पति को हव्य-प्रदान करने वाले पुत्रों को जन्म दे यश की वृद्धि करती है l अत: वह सदैव सम्मान की पात्र है l
समान कुल शील में विवाह
उनका मत था कि समान कुलशील, वर्ण में ही विवाह उपयुक्त होता है, क्योंकि उसी से श्रेष्ठ कुलीन वंश की वृद्धि होती है l इसके साथ ही उन्होंने ग्रहस्थ जीवन में संयम पर बल दिया क्योंकि रति की इच्छा से कामांध होने पर धर्म और अधर्म के निर्णय का विवेक खत्म हो जाता है l इसके साथ ही उन्होंने वैश्य जाति को तराजू प्रदान करने के साथ वार्ताशस्त्रोपजीवी भी बनाया l वैश्य लोग जहाँ सामान्य समय में व्यापार-व्यवसाय करते थे, वहां आवश्यक होने पर अस्त्र-शस्त्र उठा आत्मरक्षा के लिए भी तैयार रहते थे l उन्होंने राजा महीधर द्वारा अपनी सम्पूर्ण सम्पति दहेज के रूप में उन्हें दिए जाने पर भी विरोध प्रकट किया और कहा कि वे ब्राह्मण के समान प्रतिग्रही नहीं हैं, जो किसी के दिए दान को स्वीकार करें l उन्होंने आदर्श प्रस्तुत किया कियदि माता-पिता विवाह के अवसर पर लडकी के सुखी जीवन की कामना से उसे धन या द्र्व्यादी स्वेच्छा से प्रदान करें, तो उसको स्वीकार करना बुरा नहीं है l
वैश्य धर्म की श्रेष्ठता
महाराजा अग्रसेन ने वैश्य धर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया क्योंकि वैश्य कृषि, गोपालन, उधोग-व्यापार आदि करते हैं, जिससे सभी वर्णों के जीवन निर्वाह में सहायता मिलती है और उससे उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है l अगर वैश्य कर्म करने वाले न हों तो अन्य वर्णों के लोग भी नहीं रहेंगे l अत: यह वर्ण स्वयं में श्रेष्ठ है l जिस जीविका से जीवों की हत्या होती है, वह कदापि उचित नहीं है l
सदाचरण पर बल
उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सदाचरण पर बल दिया l उन्होंने कहा कि घर, परिवार, धन, लक्ष्मी, जीवन कुछ भी स्थिर नहीं है l केवल मनुष्य के अच्छे और महान कार्य ही उसे चिरंजीवी बनाते हैं l अत: व्यक्ति का कर्तव्य है कि जब तक उसके पास लक्ष्मी है, कुछ करने की क्षमता है, वह श्रेष्ठ कर्मों द्वारा आधिकारिक यश अर्जित कर ले l इस प्रकार के कर्मों से ही मनोरथ-सिद्दि होती है l
लक्ष्मी वृद्धि के कारण
महाराजा अग्रसेन का मत था कि केवल बुद्धिमता से ही धन प्राप्ति होती है और मूर्खता ही दरिद्रता का कारण है, ऐसा नहीं है किन्तु धर्म-सत्य, मनोनिग्रह, पवित्रता, करुणा, मधुर वाणी और मित्र से अद्रोह – ये सात बातें लक्ष्मी को बढाने वाली हैं l अत: लक्ष्मी को प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को उनका कभी त्याग नहीं करना चाहिए l
उधोग और पुरुषार्थ पर बल
उन्होंने लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सदैव उधोग एवम पुरुषार्थ पर बल दिया l उनके द्वारा बार-बार लक्ष्मी की तपस्या करने का प्रति कार्य भी यही था कि लक्ष्मी सदैव उधमी पुरुष को ही प्राप्त होती है, इसलिए मनुष्य को सदैव उसकी प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहना चाहिए l इसलिए उन्होंने जब-जब भी राज्य पर संकट आया, लक्ष्मी की उपासना की तथा संकट पर विजय प्राप्त की l कर्म में ही लक्ष्मी का वास है, यही मूलमंत्र अग्रवाल जाति के विकास का आधार है l
उनका यह भी मत था कि अच्छी प्रकार से सोच-विचार कर धर्म कर्म करने से भी अनेक बार प्रतिकूल देव (भाग्य) भी अनुकूल होने पर बाधित हो जाता है l अत: मनुष्य का कर्तव्य है कि वह श्रेष्ठ कर्मों एवम धर्माचरण द्वारा देव को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करे किन्तु पुरुषार्थ को भूल कर भी न त्यागे क्योंकि पुरुषार्थ ही समस्त सिद्धियों का मूल है l व्यक्ति संघर्षों का सामना करके ही जीवन में सफलता प्राप्त करता है l निरुधमी के लिए कुछ भी सम्भव नहीं है l उनके उपदेशों का ही प्रभाव है कि अग्रवाल जाति अपनी उधमशीलता के लिए प्रसिद्ध है और वे बिना किसी सहायता प्राप्त किए विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता प्राप्त करने में समर्थ होते हैं l
जरुरतमंदों की सहायता
महाराजा अग्रसेन ने जीवमात्र के प्रति दया एवम दीन-हीन लोगों की सहायता पर बल दिया l उन्होंने कहा कि जो मनुष्य प्रयत्न करने पर भी दुर्देववश पीड़ा भोगते हैं, उनकी सहायता करना तथा उनके कष्टों को दूर करना प्रत्येक व्यक्ति के धर्म है क्योंकि भूखा व्यक्ति हर प्रकार के पाप करने के लिए विवश होता है और उससे पृथ्वी पर अनाचार की वृद्धि होती है l वास्तव में जरुरतमंदों की सहायता यज्ञ से भी श्रेष्ठ कर्म है l
इसके साथ ही उन्होंने कहा किदान सदा बिना किसी मनोकामना के पवित्र भावना से दिया जाना चाहिए l जो दान या सहायता यश-प्राप्ति की भावना से की जाती है, उसका महत्व नहीं l याचक मर सकता है किन्तु श्रेष्ठ भावना से किया दान सदैव अमर रहता है l
जाति से कर्म श्रेष्ठ
महाराजा अग्रसेन का मत था कि व्यक्ति या जाति जन्म से ही महान नहीं होते, उनके श्रेष्ठ कर्म ही उसे महान बनाते हैं l जिसके कर्म श्रेष्ठ हैं, वह उच्च वर्णों से भी अधिक पूजनीय है l कौन कुलीन है, कौन अकुलीन, कौन पवित्र है या अपवित्र, यह व्यक्ति का चरित्र और उसका कर्म ही बताता है, वर्ण नहीं l धर्म की मर्यादा का पालन करने वाला शुद्र भी श्रेष्ठ है l
राज्य में जो भी श्रेष्ठ जन हो, उनका सम्मान करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है l अच्छी और बुरी प्रवृति के लोग हर युग में, हर समय होते हैं, किन्तु देव-नाग तथा सभी लोगों में गुणी पुरुष ही पूज्यनीय तथा सम्मानीय होते हैं, अत: व्यक्ति को सदैव श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करना चाहिए l
राज्य त्याग का आदर्श
महाराजा अग्रसेन ने राज्य-त्याग का आदर्श प्रस्तुत किया l वृद्धावस्था आने पर उन्होंने स्वयं राज्य भार विभूसेन को सौंप राज्य के प्रति अनासक्ति भावना का परिचय दिया l उन्होंने अपने जीवन द्वारा यह आदर्श प्रस्तुत किया, कि उपयुक्त अवस्था आने पर व्यक्ति को स्वयं ही राज्यभार त्याग अपना जीवन लोक कल्याण एवम मोक्षधाम की साधना के लिए अर्पित कर देना चाहिए और समाजोद्धारका भी प्रयत्न करना चाहिए l उनका यह आदर्श तथा कथन आधुनिक नेतावर्ग के लिए प्रेरणास्त्रोत है, जो किसी भी अवस्था में राज्य भार से मुक्त नहीं होना चाहते l यदि वर्तमान नेतृत्व महाराजा अग्रसेन के आदर्शों के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय देकर वर्तमान राजनीति में विधमान घोर पद लिप्सा को त्याग दे, तो वर्तमान राजनीति दुरावस्था से मुक्त होकर स्वस्थ मूल्यों की स्थापना हो सकती है l
राजधर्म
महाराजा अग्रसेन ने राजधर्म का भी विस्तृत रूप से प्रतिपादन किया l उनका मत था कि राज्य का संचालन अत्यंत ही दुष्कर कार्य हैl जो राजा बुद्धिमान हो, शूरवीर हो, न्याय नीति का मर्मज्ञ हो, अपनी रक्षा करने में समर्थ हो, वही प्रजा का पालन कर सकता है l ऐसा राजा स्वयं विधि एवम नियमों से बंधा हुआ होता है l इसलिए उसका कर्तव्य है कि वह विधि एवम न्यायपूर्वक कर्तव्य करे l जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी और पीड़ित रहती है तथा स्त्रियों का अपहरण होता है, ऐसा राजा धिक्कार के योग्य है l जो राजा सदाचारी होता है, प्रजा उसी का अनुसरण करती है तथा ऐसे राज्य में ही सदैव सुख-शांति रहती है l
महाराजा अग्रसेन का जन्म महाभारत काल में हुआ l उस समय के इतिहास तथा ग्रन्थों से पता चलता है कि राजा अनाचार में फंसे हुए थे l एक दुसरे पर अत्याचार, भाई-बहनों का कत्ल, जुआ खेलना आदि का बोलबाला था l नारी जाति का कुल भी सुरक्षित नहीं था l बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी l राजाओं का समय वैभव प्रदर्शन तथा पारस्परिक विवाद में अधिक व्यतीत होता था l देश में अराजकता का बोलबाला था l यज्ञों में पशुबलि सामान्य बात थी l भाई-भाई के खून के प्यासा था l सदाचरण के आदर्श लुप्त होते जा रहे थे l ऐसे समय में महाराजा अग्रसेन ने आग्रेय राज्य की स्थापना की और अपने राज्य में एक रुपया-एक ईंट, सदाचार, नैतिकता, एक पत्नीव्रत, राज्यहित को सर्वोपरिता, अहिंसा, मानवता, सहकारिता, सहयोग, वसुधैव कुटुम्बकम जैसे आदर्शों को अपना एक ऐसी पद्धति को जन्म दिया, जो शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर आज भी अपने श्रेष्ठता के कारण जानी जाती हैं l जहाँ महाभारत में भाग लेने वाले राजवंशो का अस्तित्व दिखाई नहीं देता, वहां अग्रवाल जाति 5100 वर्ष बाद भी अपना अस्तित्व ही नहीं, अपनी गौरव गरिमा भी विश्व में फहराए है l जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जहाँ उसकी अग्रगामिता न हो l
इस के मध्य मिश्र की सभ्यता नष्ट हो गई, रोम और यूनान की सभ्यता भी केवल इतिहास के पन्नों में है l यहाँ तक किसिकन्दर के काल की अनेक जातिओं का नामों-निशान नहीं है, किन्तु अग्रवाल जाति, अग्रोहा और महाराजा अग्रसेन का अस्तित्व पूरी दीप्ती के साथ विधमान है, यह सामान्य बात नहीं है l किसी ने ठीक ही कहा है कि यूनान, मिश्र और रोम मिट गए जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी l इसका श्रेय महाराजा अग्रसेन के आदर्शों को है l वास्तव में वे अपने युग के श्रेष्ठतम सिद्धांतों के सच्चे प्रतिनिधि थे और उनकी गणना ऐसी महान विभूतियों में की जा सकती है, जो देश काल की सीमाओं को पार कर सर्वव्यापक होते हैं l
महाराजा अग्रसेन और अग्रवाल जाति
महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के प्रवर्तक थे, वंशकर्ता थे l इतिहास में ऐसे बहुत कम व्यक्ति हैं, जिन्हें किसी विशेष जाति या धर्म के प्रवर्तन का श्रेय प्राप्त होता है l महाराजा अग्रसेन भी इसी प्रकार के गिने चुने व्यक्तियों में थे l यद्दपि वे क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु उन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा एवम क्षमता के बल पर एक नए नगर और राज्य की स्थापना की, जो उन्हीं के नाम पर आग्रेय, अग्रोद्क या अग्रोहा कहलाता है l इसके साथ ही समानता, भाईचारे, सहयोग, सहकारिता आदि गुणों पर आधारित आदर्श समाजवादी राज्य की नींव रखी l उन्होंने अपनी दूरदर्शिता एवम अदभुत संगठन क्षमता से 18 यज्ञों के माध्यम से 18 गोत्रों का प्रवर्तन कर एक शक्तिशाली उधोग व्यवसाय प्रधान वैश्य समाज की नींव रखी, जो बाद में उन्हीं से सम्बन्धित होने के कारण अग्रवाल कहलाया तथा जिसका राष्ट्र ही नहीं, विश्व की प्रगति में विशिष्ट स्थान है और जो अपनी अग्रगामिता के कारण आज भी एक श्रेष्ठ जातिसमूह के रूप में पहचाना जाता है l
महाराजा अग्रसेन जयंती
महाराजा अग्रसेन जयंती प्रति वर्ष आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को धूमधाम से मनाई जाती है l इस जयंती के विषय में कहा जाता है कि अग्रवालों के कुल पुरोहित स्वामी ब्रह्मानंद ने समाज के लोगों को प्रेरित किया कि वे अपने अग्रज की जयंती धूमधाम से मनाएं l इसी सन्दर्भ में अग्रोहा में एक भव्य आयोजन हुआ l धीरे-धीरे अग्रसेन जयंती मनाई जाने लगी l इसके बाद 1923 में अखिल भारतीय अग्रवाल महासभा के मुम्बई अधिवेशन में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि सभी अग्रवाल महाराजा अग्रसेन की जयंती पर्व आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को मनायें l उसके बाद से ही सम्पूर्ण भारत में अग्रसेन जयंती मनाने के विशेष प्रचलन हुआ l
महाराजा अग्रसेन ज्योति रथयात्रा
पांचवे तीर्थ अग्रोहाधाम तथा अग्रोहा विकास ट्रस्ट की स्थापना होने के बाद 1995 में श्री नन्दकिशोर गोइन्का, सुभाष गोयल एवम हरपतराय टांटिया के प्रयत्नों से यह निश्चय किया गया कि महाराजा अग्रसेन के सिद्धांतों का पूरे भारत में प्रचार-प्रसार करने, अग्रोहधाम से अग्रवालों को जोड़ने तथा अग्रवैश्य समाज को संगठित करने के उद्देश्य से विशाल ज्योति रथ यात्रा का आयोजन किया जाए l तदानुसार 15 अप्रैल 1995 को श्रीगंगानगर (राजस्थान) से इस यात्रा का शुभारम्भ ट्रस्ट के अध्यक्ष सुभाष चन्द्र ने अग्र ध्वज फहरा कर किया तथा हरपत राय टांटिया, रामेश्वरदास गुप्त, बी.डी.गुप्त, प्रो. गनेशी लाल, नन्द किशोर गोइन्का आदि के कुशल संयोजन में यह यात्रा लगभग 4 वर्ष तक लगातार चली और इसने राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तामिलनाडू, केरल, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बंगाल जैसे विभिन्न राज्यों की लगभग तीन लाख किलोमीटर दुरी पार कर भारत के कोने कोने में जाकर महाराजा अग्रसेन के आदर्शों का संदेश दिया तथा अग्रवाल जाति के 5100 वर्षों के इतिहास में एक नया प्रतिमान बनाया l वास्तव में नव जागरण एवम संगठन का स्वर निनाद करने में इस यात्रा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई l
महाराजा अग्रसेन और उनके स्मारक
वैसे तो महाराजा अग्रसेन के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के आयोजन समय-समय पर अनेक दशकों से हो रहे हैं, किन्तु उन्हें विशेष बल 1975 में अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन तथा 1976 में अग्रोहा विकास ट्रस्ट की स्थापना से मिला और महाराजा अग्रसेन की स्मृति में स्थान-स्थान पर प्रतिमाएं, मन्दिर, शिक्षण संस्था, मार्ग, वाटिकाएं आदि की स्थापना के साथ साथ राष्ट्रीय स्तर पर अनेक महत्वपूर्ण कार्य हुए, जिनमें कतिपय का उल्लेख का उल्लेख किया जा रहा है –
डाक टिकट का प्रकाशन
महाराजा अग्रसेन के महत्व को देखते हुए भारत सरकार ने 24 सितम्बर, 1976 को उनकी स्मृति में 25 पैसे का एक डाक टिकट 80 लाख की संख्या में प्रकाशित किया, जो किसी भी विभूति की स्मृति में प्रकाशित होने वाले टिकटों में प्रतिमान था l इस डाक टिकट का विमोचन तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने किया और कार्यक्रम की अध्यक्षता डा. शंकर दयाल शर्मा ने की l इस के बाद अग्र समाज की अनेक विभूतियों पर भी डाक टिकट प्रकाशित होने लगे l भारत सरकार द्वारा डाक टिकट प्रकाशन से महाराजा अग्रसेन तथा अग्रोहा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली l
महाराजा अग्रसेन राष्ट्रीय राजमार्ग
महाराजा अग्रसेन की स्मृति में केन्द्रीय परिवहन मंत्रालय ने दिल्ली से अग्रोहा होकर पाकिस्तान की सीमा फाजिल्का तक जाने वाले मार्ग का नामकरण महाराजा अग्रसेन राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-10 किया l
महाराजा अग्रसेन जलपोत
भारतीय नौवहन निगम के दी शिपिंग आफ इंडिया ने 350 करोड़ की लागत से निर्मित एक लाख चालीस हजार टन के विशाल तेल वाहक जलपोत का नामकरण महाराजा अग्रसेन के नाम पर किया l यह पोत 2,64,000 एम लम्बा, 4,60,000 एम चौड़ा तथा 27000 एम गहराई से युक्त था l 25 जनवरी, 1995 को दक्षिण कोरिया में इसका जलावतरण समारोह सम्पन्न हुआ और भारत में भी इस अवसर पर मुम्बई में विशाल आयोजन सम्पन्न हुआ l
महाराजा अग्रसेन की प्रतिमाएं
दिल्ली नगर निगम के माध्यम से सरकार ने अंतर्राज्य बस अड्डा दिल्ली के निकट स्थित निकल्सन पार्क में 19 सितम्बर 1990 को महाराजा अग्रसेन की भव्य प्रतिमा स्थापित की l अष्ट धातु से निर्मित यह प्रतिमा 12 फुट ऊँची है और दिल्ली में स्थापित अन्य प्रतिमाओं से विशाल है l इसी प्रकार हैदराबाद में भी विशाल कांस्य प्रतिमा की स्थापना की गई l देश के अन्य भागों में भी सैकड़ों प्रतिमाएं स्थापित हो चुकी हैं l आगरा एवम देश के कई अन्य भागों में महाराजा अग्रसेन के मंदिर भी बने हैं l
सुपर नेशनल हाईवे
आज तक देश में राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण हो रहा है किन्तु तत्कालीन परिवहन मंत्री जगदीश टाईटलर ने देश में 10 सुपर नेशनल हाईवे बनाने का निर्णय किया और दिल्ली से मुंबई, बंगलुरु से कन्याकुमारी तक जाने वाले सुपर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या एक का नामकरण महाराजा अग्रसेन पर करने की घोषणा की l इस मार्ग के निर्माण पर 25000 करोड़ रूपये से अधिक की राशि खर्च होने का अनुमान है l
महाराजा अग्रसेन बावड़ी
दिल्ली के कनाट पैलेस क्षेत्र की हेली रोड पर महाराजा अग्रसेन बावड़ी है l पुरातत्व विभाग के अनुसार इस बावड़ी का निर्माण 700-800 वर्ष पूर्व हुआ l
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अग्रोहाधाम
आपणों तो एक ही धाम अग्रोहाधाम -अग्रवालों की आदि भूमि अग्रोहा जहां एक महान संस्कृति का ह्रदय बसता है!
अग्रोहा अग्रवालों की आदि भूमि है l यह वह पावन स्थान है, जहाँ से अग्रवाल समाज का उदभव हुआ, जिनके उधोग व्यवसाय में वर्चस्व, दानशीलता, परोपकार की गाथाएँ विश्व के कोने - कोने में गूंजी तथा भारतीय राष्ट्र की प्रगति का सेहरा जिनके मस्तक पर सुशोभित है और जिसके बल पर वह अपनी यशोगाथा पूरे विश्व में फहरा सकता है l
यही वह गौरवपूर्ण धरा है, जहां महाराजा अग्रसेन का समाजवाद, भ्रातत्व, पारस्परिक एकता तथा सहयोग का संदेश गूंजा और एक ईंट- एक रुपया जैसे महान समाजवादी सिद्धांत का उद्घोष हुआ l जिसके विषय में कहा जा सकता है कि इस प्रकार का सिद्धांत न तो विश्व में अन्यत्र कहीं पनपा और आने वाला युग इस प्रकार के किसी संदेश को देने में सक्षम होगा, उसकी कल्पना करना ही कठिन लगता है l
यह वही अग्रोहा जन्मभूमि है, जो अग्रवालों के प्रत्येक साँस में भगवान राम की अयोध्या नगरी के समान रची-बसी है l यह वह तीर्थ है, जिसके रजकण का स्पर्श कर हर अग्रवाल अपने आप को धन्य अनुभव करता है l यह उनके पूर्वजों की वह समाधि स्थली है, जहां के सतियों की बलिदान गाथा आज भी उनके हृदय को तप-त्याग और वीरता की भावना से उद्वेलित कर देती है l
वास्तव में इस नगरी का इतिहास गौरवपूर्ण है और इसका कण-कण महिमामण्डित है l
स्थापना
श्री अग्रसेन उपाख्यान के अनुसार अग्रोहा राज्य की स्थापना महाराजा अग्रसेन ने ऋषि गर्ग की प्रेरणा से की थी l यह मरुप्रदेश की भूमि थी, जो बालू से परिपूर्ण एवम पश्चिम दिशा में फैली हुई थी l यहीं महाराजा अग्रसेन को खुदाई से नाना – प्रकार के रत्न, धन और सम्पति की प्राप्ति हुई थी l इस नगरी का निर्माण कुशल वास्तुविदों के निदेशन में विश्वकर्माओं द्वारा हुआ था और यह नगरी सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से सम्पन्न थी l
इस नगरी का विस्तार 12 योजन लम्बा और 4 योजन चौड़ा अर्थात आयताकार था l यह नगरी बड़े-बड़े द्वारों से सुशोभित थी और इसमें विशाल राजमार्ग, कुँए, तालाब, बावड़ी, धर्मशालाएं, गौशालाएं, आश्रम और विराट भवन बने हुए थे l इस नगरी की सीमाएं सुरक्षित थी l ऊँची-ऊँची चार दिवारियां इसे वस्त्रों की भांति आवृत किए हुए थी और चारों ओर खाइयाँ होने के कारण यह नगरी शत्रुओं से सुरक्षित एवम सब प्रकार से अभेद्य थी l
नगर के मध्य में कुलदेवी महालक्ष्मी का मंदिर तथा इसके विभिन्न भागों में अन्य देवालय बने हुए थे, जहां निरंतर महालक्ष्मी एवम अन्य देवी-देवताओं की आराधना चलती रहती थी l इस नगरी में बने ऊँचे-ऊँचे भवन इसकी शोभा में वृद्धि करते रहते थे l यह नगरी गोधन, राजधन, वाणिज्यधन सब प्रकार के धनधान्य से सम्पन्न थी और उसमें बड़े – बड़े धर्मपरायण, दानवीर तथा शूरवीर लोग निवास करते थे l
महालक्ष्मी व्रत कथा के अनुसार यह नगर द्वादश योजन में विस्तीर्ण व बहुत शुभ था l यहाँ पारावत, सारस, हंस, सारिका, मयूर, कोयल आदि पक्षियों के समूह विराजित थे l वृक्ष, फूलों. फलों तथा पत्तों से सुशोभित थे l यह विशाल पूरी हाथी, घोड़ों, से शोभित और स्वर्ण रत्न आदि से परिपूर्ण थी l यहाँ अनेक प्रकार के यज्ञ होते रहते थे l धन-धान्य से सम्पन्न इस नगरी को देखकर ऐसा लगता था, मानो इंद्रदेव की अमरावती स्वयं यहाँ उतर आई है l इस नगरी का निर्माण महाराजा अग्रसेन ने करोड़ों मुद्राओं के व्यय से कराया l
डा. सत्यकेतु विधालन्कार ने उस समय के जनपदीय नगरों का वर्णन करते हुए कहा है कि उस समय आज कल की तरह बड़े-बड़े राज्य नहीं थे l भारत में ही नहीं अन्य देशों में भी छोटे-छोटे राज्य होते थे l भारत के प्राचीन साहित्य में भारत के छोटे-छोटे राज्यों के लिए “गण” या “संघ” शब्द प्रयुक्त होता था l संघ का विस्तार क्षेत्र आजकल के जिलों के लगभग होता था l बीच में पुर या राजधानी होती थी और चारों ओर जनपद, पुर में सम्पन्न लोगों के घर और देवी-देवताओं के मंदिर बने होते थे तथा विभिन्न व्यवसायी अपना अपना व्यवसाय करते थे l राज्य का संचालन वहीं से होता था l पुर के निवासी भी उसमें सहयोग करते थे और राज्य का संचालन चाहे वंशक्रम से कोई राजा कर रहा हो, अथवा अन्य व्यक्ति, उसके संचालन में विविध कुलों या परिवारों के मुखिया सम्मिलित हो सहयोग करते थे l अग्रोहा भी इसी प्रकार गण पर आधारित महत्वपूर्ण जनपद था l
अग्रोहा राज्य की सीमा और प्रमुख नगर
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अग्रवालों की उत्पति नामक पुस्तक में महाराजा अग्रसेन के राज्य की सीमा इस प्रकार लिखी है – उत्तर में हिमालय पर्वत और पंजाब की नदियाँ, दक्षिण और पूर्व में गंगा, पश्चिम में यमुना से लेकर मारवाड़ तक का प्रदेश l राजधानी अग्रनगर (आग्रेय) था l राज्य में दूसरा बड़ा नगर आगरा था, जिसका शुद्ध नाम अग्रपुर हैl यह नगर महाराजा अग्रसेन के राज्य के पूर्व-पश्चिम प्रदेश की राजधानी था l दिल्ली का शुद्ध नाम इन्द्रप्रस्थ था, गुडगाँव जिसका शुद्ध नाम गौड़ग्राम था इसलिए अग्रवाल यहाँ की माता को पूजते हैं l महाराष्ट्र (मेरठ), रोहिताश्व (रोहतक), हांसी, हिसार जिसका शुद्ध नाम हिसांरी देश है, पुण्यपतन (पानीपत), करनाल, नगरकोट (कोटकांगड़ा), लवकोट (लाहौर), मण्डी, विलासपुर, गढवाल, जींद, सफीदों, नाभा, नारिनवल (नारनौल) आदि नगर इस राज्य में थे l
अग्रोहा की ऐतिहासिकता
डा. सत्यकेतु विधालन्कार का मत है कि भारत में अनेक जातियों का उदभव व् विकास प्राचीन गणराज्यों के जनपदों से हुआ l उसी के अनुरूप माना जाता है कि अग्रवाल जाति का उद्गम आग्रेय जनपद से हुआ और वहीं से अग्रवाल भारत के विभिन्न भागों में फैले l जैसा कि अनेक प्राचीन राजधानियों और जनपदों के साथ हुआ, कालचक्र के प्रवाह से उनका अस्तित्व समाप्त हो गया तथा वर्तमान में केवल उनके खंडहर बचे हैं l यही हाल अग्रोहा का हुआ l अग्रोहा गणराज्य कई कारणों से नष्ट हो गया तथा काल के प्रभाव से उसके खंडहर मात्र रह गये, जो वर्तमान अग्रोहा के पास 650 एकड़ में फैले हैं l
वैसे पूर्व में अग्रोहा के अग्रवालों की जन्मस्थली होने की गाथा भाटों की पुरानी बहियों, बसनों एवम लोकप्रिय अनुश्रुतियों में प्राचीन काल से ही चली आ रही थी, किन्तु सौभाग्य से 1888-89 में जब सी.टी. राजर्स तथा 1938-39 में एच. एल. श्रीवास्तव के नेतृत्व में यहाँ खुदाई की गई तो अन्य वस्तुओं, मनके, मूर्तियों, बर्तनों आदि के अतिरिक्त वहां पर्याप्त मात्रा में सैंकड़ों की संख्या में ऐसे सिक्के भी मिले, जिन पर अंकित था – “अग्रोदके अगाच्च जनपदस” l इन तीन शब्दों ने अग्रवाल जाति के इतिहास को जैसे नया मोड़ ही दे दिया l डा. वासुदेव शरण अग्रवाल एवम अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया कि आजकल जिसे अग्रोहा कहा जाता है, उसी का प्राचीन नाम प्राकृत भाषा में अग्रोदक है l जैसे संस्कृत प्रथूदक नाम से कुरुक्षेत्र का नगर पिहोवा बना, उसी प्रकार अग्रोदक से अग्रोहा बन गया है l अग्रोहा से प्राप्त इन सिक्कों की लिपि के आधार पर इनका काल दूसरी सदी ईस्वी पूर्व स्वीकार किया गया l
यह दृष्टव्य है कि प्राचीन काल में अधिकाँश राजधानियां किसी नदी या जलस्त्रोत के निकट ही स्थित थी l डा. परमेश्वरी लाल गुप्त के अनुसार “अग्रोदक”शब्द का यदि संधिविग्रह किया जाए तो अग्र+उदक होगा l उदक का अर्थ जल या तालाब होना चाहिए l प्राचीन काल में जबकि मरुस्थली इलाकों में जल का अत्यधिक महत्व था l तालाबों अथवा जलाशयों का नाम विशिष्ट पुरुषों अथवा नगरों से सम्बन्धित करना सामान्य प्रक्रिया थी l इसी आधार पर हो सकता है कि “अग्र” नाम विशिष्ट व्यक्ति या राजा से सम्बन्ध होने के कारण उस तालाब का नाम “अग्रोदक” पड़ गया हो अथवा यह किसी “अग्र” नामक गणराज्य या नगर से सम्बन्धित रहा हो l
जो भी हो, अग्रोहा का अस्तित्व पुराना है और उसका सम्बन्ध अग्रवालों से रहा, यह निर्विवाद है l इसकी प्राचीनता का उल्लेख ग्रन्थों में भी मिलता है l डा. सत्यकेतु विधालन्कार की मान्यता है कि उसका अस्तित्व महाभारत काल में था l इस सम्बन्ध में उन्होंने महाभारत के निम्न श्लोक को उदधृत किया है –
भद्रान रोहितकांश्चैव आग्रेयान मालवानपि l
गणान सर्वान विनिजिर्त्य नीतिकृत प्रहसन्निव ll
इस श्लोक में जिस आग्रेयगण’ का उल्लेख किया गया है, वह निश्चित रूप से अग्रोहा ही था l उपर्युक्त श्लोक में भद्र, रोहितक, आग्रेय, मालव आदि गणों का निश्चित क्रम में उल्लेख है, आज भी उनकी भौगोलिक स्थिति उसी रूप में पायी जाने से उनकी प्रमाणिकता असंदिग्ध है l रोहतक (हरियाणा) में अग्रोहा से कुछ दूर दक्षिण पूर्व में और भद्र अर्थात वर्तमान भादरा, अग्रोहा के पश्चिम में विधमान है l फिरोजपुर, लुधियाना, पटियाला, नाभा आदि रियासतों का कुछ भाग मालव प्रदेश के नाम से प्रख्यात रहा है l अत: आग्रेयगण की प्रमाणिकता और उसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए उसका वर्तमान अग्रोहा होना स्वयं सिद्ध है l
सुविख्यात पुरातत्ववेता डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. परमेश्वरी लाल गुप्त एवम राधा कमल मुखर्जी ने भी इस श्लोक की प्रमाणिकता और आग्रेयगण के अस्तित्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है l काठक सहिंता, आपस्तंव श्रोत-सूत्र तथा पाणिनी की अष्टाध्यायी में भी आग्रायण, आग्रेयगण आदि का उल्लेख आया है, जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं l
डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि “अग्रोदक” से ही अग्रोहा शब्द बना है l यह अग्रोहा या अग्रोदक एक जनपद की राजधानी था और उस जनपद का नाम “अग्र” था l अत: अग्रवाल जाति में अपने उद्गम के बारे में जो किंवदन्ती प्रचलित है, उसका आधार शुद्ध ऐतिहासिक है l
श्री वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपनी पुस्तक “पाणिनीकालीन भारतवर्ष” में पाणिनी के काल का गम्भीर अध्ययन प्रस्तुत किया है l पाणिनी के सूत्र 8/4/4 में 6 वनों का उल्लेख किया है -
“वनं पुरगामिश्रका सिधका सारिका कोटस्ग्रेभ्य: पुरगावण,
मिश्रकावण, सिधकावण, सारिकावण, कोटरावण और अग्रेवण l ”
“अग्रेवण निश्चित रूप से अग्रजनपद, जिसकी राजधानी अग्रोदक (अग्रोहा) थी, में स्थित वन का नाम था l (पृष्ट 42)”
पाणिनी का काल 500 ईस्वी पूर्व माना जाता है l इससे स्पष्ट है कि ईस्वी पूर्व 500 से पहले भी अग्रजनपद की स्थिति थी l
वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत ऐसा ग्रन्थ है, जिसे आधुनिक युग में भी प्रामाणिक माना जाता है l वेदव्यास जी ने 18 पुराणों की रचना की, महाभारत के 18 पर्व हैं, महाभारत युद्ध में 18 अक्षौहिणी सेना ने भाग लिया l युद्ध भी 18 दिन चला, युद्धभूमि में श्रीकृष्ण द्वारा कही गई गीता में भी 18 अध्याय हैं l अग्रवालों के 18 गोत्र हैं l
कालीचरण केशान की मान्यता है कि महाभारत में अग्रजनपद का उल्लेख और 18 संख्या का साम्य निश्चित रूप से इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि महाभारत काल में अग्रजनपद (अग्रोहा) का अस्तित्व था और उसकी स्वतंत्र पहचान थी l
अग्रोहा सम्बन्धी उल्लेख यूनानियों के उन विवरणों से भी मिलता है, जिन्होंने सिकन्दर का प्रामाणिक इतिहास लिखा है l इन विवरणों में उल्लेख है कि सिकन्दर ने “अग्लसोई” नामक नगर पर आक्रमण किया था l डा. सत्यकेतु विधालन्कार डा. सत्यकेतु विधालन्कार ने इस अग्लसोई को अग्रोहा या आग्रेयगण ही माना है l उनके अनुसार अग्गलस्सी निवासियों का नाम था और अग्लस उस स्थान का, जहां के ये लोग निवासी थे l डा. परमेश्वरी लाल गुप्त का मत भी यही है कि सिकन्दर अग्रोहा तक आया था और उसका विजित प्रदेश यही था l कर्टियस के अनुसार अग्लसोई जाति ने सिकन्दर का दृढ़तापूर्वक सामना किया और उसके पास 40,000 पैदल सिपाही और 3,000 घुड़सवारों की सेना थी l युद्ध के कारण इस नगर को भीषण क्षति उठानी पड़ी l अग्रोहा नगर पर विदेशी आक्रमणकारियों का अधिकार हो गया l एरियन के अनुसार इस नगर के 20000 निवासियों ने अपनी रक्षा का अन्य उपाय न देखकर नगर में आग लगा दी और उसी में अपने स्त्री, बच्चों के साथ कूद कर जल मरे, किन्तु नगर का दुर्ग सुरक्षित बचा लिया गया l डायडोरस का इससे थोडा भिन्न मत है l उसके अनुसार इस नगर पर आक्रमण करने के बाद सिकन्दर ने ही उसे जला दिया था l यह स्वाभाविक लगता है कि किसी भूभाग के निवासी, विरोधी सत्ता स्वीकार न करें तो वे आक्रोश स्वरूप उस नगर को उजाड़ अथवा जला दें l भाटों के गीतों में भी सिकन्दर द्वारा अग्रोहा पर आक्रमण तथा अग्रोहावासियों द्वारा वीरतापूर्वक उसका मुकाबला करने का उल्लेख मिलता है l
डा. गंगाराम गर्ग के अनुसार मैकिजल की इस प्रसिद्ध पुस्तक में सिकन्दर महान के भारत पर किए जाने वाले उक्त आक्रमण का विवरण है l
इस विवरण के अनुसार जब सिकंदर की सेना ने आगे बढने से इंकार कर दिया तो उसने वापसी के लिए दक्षिण पंजाब एवम सिंध के मार्ग से लौटने का निश्चय किया और उस कार्य को सम्पन्न कराने के लिए उसने 2000 नावों का बेड़ा बनवाया l उसके पश्चात बिना किसी बाधा के सिकंदर 1326 ई. पूर्व में वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे आ पहुंचा और वहां के लोगों को परास्त कर जलमार्ग से अपनी वापसी की यात्रा प्रारम्भ की l इस यात्रा में उसका विशाल जहाजीबेड़ा वितस्ता नदी में चल रहा था एवम उसकी स्थल सेना नदी के दोनों तटों पर उसका अनुगमन कर रही थी l इस प्रकार बिना किसी लड़ाई के सिकन्दर वितस्ता एवम असिल्की (चिनाव) नदियों के संगम पर जा पहुंचा l वहां के लोगों ने उसका अधिकार मान लिया किन्तु आग्रेयगण के लोगों ने उसका विरोध किया l उन लोगों के निवास स्थान शतद्रु (सतलुज) नदी के पूर्व दक्षिण स्थित प्रदेश में था l सिकन्दर ने इन लोगों को युद्ध में परास्त किया, किन्तु नगरी पर उनका अधिकार होने से पूर्व ही आग्रेयगण के लोगों ने उसे भस्मसात कर दिया l
जो भी हो, यूनानी इतिहासकारों द्वारा वर्णित “अग्लसोई” ही वर्तमान अग्रोहा था या नहीं, इस मत पर इतिहासकारों में कुछ मतभेद हो सकता है किन्तु ईस्वी पूर्व तीसरी सदी के लगभग अग्रोहा शासकों की उथल-पुथल का केंद्र रहा, इसका प्रमाण वहां से प्राप्त यूनानी सिक्के, अमिंट्स, ऐंटीअलकाइड, अफोलोडोट्स, इंडोग्रीक आदि से भी होता है l
1938 में श्री एच.एल. श्रीवास्तव ने अग्रोहा के अवशेषों की खुदाई पुन: करवाई l पुरातात्विक रिपोर्टों ने इस तथ्य की पुष्टि की, 200 ई.पूर्व अग्रोहा एक विशाल समृद्ध नगर था और उसके बाद ही उसे जलाए या उजाड़े जाने जैसी कोई घटना हुई l
किसी भी राज्य या राष्ट्र की समृधि या सम्पन्नता कभी कभी उसके अभिशाप का कारण भी बन जाती है l यही हाल अग्रोहा का हुआ l वहां एक सशक्त गणराज्य था l उसका वैभव बढ़ा-चढ़ा था l उसकी यही सम्पन्नता विदेशी आक्रमणकारियों के आकर्षण का बिंदु बन गई l परिणामस्वरूप अग्रोहा को निरन्तर एक के बाद एक आक्रमणों और उथल-पुथल का सामना करना पड़ा l यह उसकी प्रबल जीवन्तता का ही परिणाम था कि वह इन वारों को झेलते हुए भी अपना अस्तित्व बनाए रख सका l
ई.पूर्व 200सदी के बाद के अग्रोहा का इतिहास उसके इसी उजड़ने बसने के कहानी है l इस पर तोमरों और चौहानों का आक्रमण हुआ, कुषाण और भारशिव नागवंश ने इस पर अपना अधिकार बनाए रखने के चेष्टा की, उज्जैन के राजा समरजीत की कुचालों का यह शिकार हुआ, किन्तु 12वीं सदी के अंत में मोहम्मद गौरी और गजनबी के आक्रमणों ने तो इसकी कमर तोड़ दी l अग्रोहा पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया l यद्दपि इसका प्रमाणबद्ध उल्लेख नहीं मिलता, फिर भी गौरी की लूटपाट के क्षेत्रों में यह हिस्सा भी आता है l हो सकता है, यह नगर उस समय अपनी प्रसिद्धि खो चुका हो, जिसके कारण इतिहासकारों ने इसका स्पष्ट उल्लेख न किया हो l
फिर भी जो ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, उससे स्पष्ट है कि अग्रोहा ने जैसे किसी भी परिस्थिति में पराजित न होना सीखा था l उसमें परिस्थिति का सामना करने की दुर्दम्य शक्ति और लालसा थी l कभी हरभजशाह जैसे दानी की उदारता से, तो कभी दीवान नन्नूमल जैसे मातृभूमि-प्रेमी द्वारा अग्रोहा निर्माण का प्रयत्न चलता रहा और अग्रोहा अपने गौरव की यशोपताका फहराता रहा l बर्बर गजनबीयों और मोहम्मद गोरियों के तगड़े प्रहारों तथा विध्वंश के बाद पुनर्निर्माण का यह कार्य सहज नहीं था l फिर भी अग्रोहा निवासियों में कुछ ऐसी संजीवनी शक्ति विधमान थी, जिससे वह पुन: पुन: जीवित हो उठता था l
ऐसा लगता है कि गौरी के आक्रमण के बाद भी अग्रोहा ने कई बार अंगडाई ली थी l इतिहासकार जियाऊद्दीन बरनी के उल्लेख से पता चलता है कि फिरोजशाह तुगलक के काल में अग्रोहा का अस्तित्व विधमान था l यही नहीं इब्नबतूता के उल्लेखों से पता चलता है कि हिसार-ए-फिरोजा के निर्माण में उसने अग्रोहा के अवशेषों की सामग्री का उपयोग किया था l हिसार से अग्रोहा 22 किलोमीटर की दूरी पर था, अत: फिरोजखां तुगलक ने इसके मलबे को काम में लिया हो तो आश्चर्य की बात नहीं l इस प्रकार वहां के ध्वंसावशेष भी क्रमश: समाप्त होते गए l
कालान्तर में पटियाला राजा के यशस्वी दीवान नन्नूमल अग्रवाल (1765-1781) ने अग्रोहा को पुन: बसाने और उसका पुनर्निर्माण करने का एक और प्रयत्न किया l वे बड़े ही कुशल प्रशासक एवम सैन्य संचालक थे l उन्होंने अपने सैन्य बल से दिल्ली के मुगल सम्राट के अधीनस्थ फतेहाबाद, सिरसा, हांसी और हिसार जैसे महत्वपूर्ण नगरों को पटियाला राज्य में सम्मिलित कर लिया l जब हिसार उनके आधिपत्य में आ गया तो उन्होंने अग्रोहा में एक किले का निर्माण कराया, जिसके अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं और उसे दीवान नन्नूमल का किला कहते हैं l
18वीं शताब्दी के अंत में सुप्रसिद्ध लेखक रेनेल ने अपने समय के भारत का एक नक्शा दिया है, जिसमें अग्रोहा का नाम भी है l इससे पता चलता है कि अग्रोहा का 18वीं शताब्दी में भी अस्तित्व था l
इस प्रकार अग्रोहा के विध्वंस और निर्माण के प्रयत्न चलते रहे किन्तु लगता है कि मोहम्मद गौरी के आक्रमण से पहले जो इसका विशाल और भव्य रूप था, वह फिर नहीं बन सका l गौरी के आक्रमण के पश्चात अग्रोहा से निष्क्रमण करने वाले बहुसंख्यक अग्रवाल विभिन्न स्थानों में जाकर बस गए और वहां के स्थायी निवासी हो गए l भाटों के गीतों तथा अनुश्रुतियों से पता चलता है कि अग्रोहा छोड़ने वाले अग्रवालों ने पहले हिसार, हांसी, तोशाम, सिरसा, नारनौल, रोहतक, पानीपत, करनाल, जींद, कैथल, दिल्ली, मेरठ, सुनाम, जगाधरी, सहारनपुर, बूडियों, कानोड, नांगल आदि में बस्तियां बसाई, जो वर्तमान हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पूर्वी राजस्थान में थी l इनके अतिरिक्त अमृतसर, अलवर, उदयपुर, आमेर, सांभर, कुचामन, मेड़ता, पाली आदि में भी अग्रवालों की बहुलता थी l
अग्रवालों में विभिन्न अल्ल और बंक प्रचलित हैं, उनसे भी इन बस्तियों (स्थानों) का पता चलता है l जैसे अग्रवालों की एक शाखा जो मेहम नामक स्थान पर जाकर बस गई थी, मेहमिया कहलाई l इसी प्रकार केड नामक स्थान पर बसने वाले केडिया और कानोड़ के रहने वाले कानोडिया कहलाए l
इस सब तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्तमान अग्रोहा ही आग्रेय गणराज्य (अग्रोदक) की प्राचीन राजधानी और अग्रवाल जाति के वंशजों का वही आदि स्थल है l उसी गणराज्य के निवासियों ने शताब्दियों विदेशी आक्रमणों से लोहा लिया और प्राण देकर भी अपनी पितृभूमि की रक्षा की l उन महापुरुषों के बलिदान और उनकी पवित्रता स्त्रियों के जौहर में जलने की किवद्न्तियाँ आज भी प्रचलित हैं l
यद्दपि अग्रोहा में प्राचीन अवशेषों की खुदाई का पूरा कार्य नहीं हुआ है, फिर भी वहां जो ध्वंसावशेष, सिक्के, मूर्तियाँ आदि मिले हैं, उनसे पता चलता है कि वहां किसी समय महान जनपद का अस्तित्व था और उसकी सभ्यता सिन्धुघाटी एवम मोहनजोदडों सभ्यता से भी कहीं अधिक आगे बढ़ी हुई थी l
अग्रोहा के सम्बन्ध में विद्दमान विभिन्न अनुश्रुतियां एवम कथाएँ
अग्रोहा तथा लक्खी तालाब
अग्रोहा में लक्खी तालाब का उल्लेख मिलता है l कहते हैं यह तालाब मीलों दूरी में फैला था और उसकी ख्याति दूर दूर तक फैली थी l आज भी लोक-गाथाओं में उसका गौरव गान बड़े सम्मान के साथ किया जाता है l इस तालाब के निर्माण के पीछे एक बड़ी ही रोचक गाथा है, जो इस प्रकार है –
एक बनजारा था l नाम था लक्खी सिंह l वह आजीविका की खोज में इधर-उधर भटक रहा था l जब वह घूमते-घूमते अग्रोहा पहुंचा तो उसने सेठ हरभजशाह के विषय में सुना l उस समय सेठ हरभजशाह लोक और परलोक की शर्त पर ऋण दे रहा था l उसे बड़ी प्रसन्नता हुई कि वह हरभजशाह से बड़ी राशि कर्ज के रूप में ले सकेगा और उसे कर्ज भी नहीं चुकाना पड़ेगा l भला परलोक को किसने देखा है ? यह सेठ भी कितना भोला और मूर्ख है, जो इस तरह की बेतुकी शर्त पर अपना पैसा लुटा रहा है l कौन ऐसा मूर्ख होगा जो इस लोक में पैसा लौटाएगा ? बस अब तो मौज ही मौज है l थोड़े ही समय में उसके हाथ में ढेर सारी राशि होगी और वह भी लखपति बन जाएगा l
मन में प्रसन्न होता हुआ वह हरभजशाह की दूकान पर आया और एक लाख रूपये मांगे l मुनीम ने पूछा कि भुगतान लोक में या परलोक में ? बनजारे ने अगले लोक में चुकाने की बात कही l मुनीम ने परलोक वाली बही निकाली और लक्खी बनजारे का अंगूठा लगवा कर एक लाख रुपया दे दिया l
लक्खी बनजारा एक लाख रुपया लेकर खुश होता हुआ चला गया l उसकी खुशियों का कोई ठिकाना न रहा l अब उसका अपना मकान होगा, कारोबार होगा और अब वह किसी का मोहताज नहीं रहेगा l बीवी और बच्चों की इच्छाएं पूरी कर सकेगा, आभुषनोंएवम सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित पत्नी होगी, रह-रह कर एक के बाद एक कल्पनाएँ उसके दिमाग में आती जा रही थी. और वह सुनहले स्वप्न संजोने में लीन था l
किन्तु कल्पनाओं का यह प्रवाह अधिक समय तक चालू न रह सका l उसने मन में अनुभव किया कि लाखों करोड़ों का व्यापार करने वाला इतना बड़ा महाजन मूर्ख नहीं हो सकता l उसे परलोक में रूपये चुकाने ही पड़ेंगे l पिछले जन्म में उसने जो पाप किए, उसके कारण उसे ये बनजारे के दिन देखने पद रहे हैं, अगर वह परलोक में सेठ के लाख रूपये नहीं चुका पाया तो उसका क्या हाल होगा ? उसे सेठ का बैल बनकर रूपये चुकाने होंगे l तब तो उसकी हालत और भी बुरी होगी l अब सेठ के रूपये रखना उसके लिए कठिन हो गया l उसने तुरंत उन्हें लौटाने का निश्चय कियाl
एक-एक क्षण उसे भारी प्रतीत होने लगा l उसका मन भारी उधेड़ बुन में था l रह-रहकर यह आशंका उसे उद्वेलित किए थी कि यदि सेठ ने यह पैसा जमा करने से इंकार कर दिया तो फिर क्या होगा ? उसे तो बैल बनना ही पड़ेगा l इन्हीं संकल्प-विकल्पों के बीच वह सेठ की गद्दी पर पहुंच गया और उसने रूपये लौटाने की इच्छा प्रकट की l सेठ जी के मुनीम ने बही देखकर कहा कि यह रूपये तो परलोक की शर्त पर लिए गए थे l अत: इस लोक में जमा नहीं हो सकते l
लक्खी बनजारे ने मुनीम जी की खूब मिन्नत की, हाथ जोड़े किन्तु मुनीम जी का वही उत्तर था l बनजारे का हृदय अथाह निराशा के सागर में डूब गया l उसे अपने आप पर घृणा होने लगी l वह खिन्न हो निर्जन वनों, पहाड़ों में घुमने लगा l जो भी मिलता, उससे ऋण मुक्ति का उपाय पूछता l घूमते-घूमते उसे वन में एक योगीराज मिले l लक्खी बनजारा उनके पैरों में पड़ रोने लगा और योगीराज से प्रार्थना की कि वे कृपा करके उसे ऐसा कोई मार्ग सुझाएँ, जिससे उसे उगले जन्म में सेठ का बैल न बनना पड़े l योगीराज ने उसकी स्थिति से दयार्द्र हो उपाय सुझाया कि तुम इन रुपयों से अग्रोहा में एक तालाब खुदवाओ और उसमें स्वच्छ जल भरवा दो l उन्होंने उसे उसके आगे की योजना भी समझाई l
प्रसन्नचित लक्खी बनजारे ने योगीराज के बताए अनुसार ही सब कुछ किया l उसने अग्रोहा के समीप ही एक भव्य तालाब का निर्माण करवा उसमें जल भरवा दिया l उसने उसका ऐसा प्रबंध किया कि कोई भी उस तालाब से पानी न भर सके l महिलाएं, बच्चे, नर-नारी उस तालाब पर पानी भरने आते और बिना पानी भरे निराश लौट जाते l लक्खी सिंह का सब को एक ही जवाब होता यह सेठ हरभजशाह का निजी तालाब है l इसमें से किसी को भी पानी भरने या पीने की इजाजत नहीं है l शनै-शनै यह बात सेठ हरभजशाह के कानों में भी पहुंची l उसे यह बुरा लगा कि उसके नाम से पानी भरने से मना किया जाए और उसकी लोकनिंदा हो l
सेठ हरभजशाह ने लक्खी सिंह को बुला सारी बातें पूछी और उसके आग्रह को देखते हुए उसका रुपया जमा कर तालाब से पहरा हटाने का अनुरोध किया l लक्खी बनजारा बड़ा प्रसन्न हुआ l तालाब के नाम भी लक्खी तालाब पड़ गया l
यह तालाब कई योजन लम्बा और चौड़ा था l कहते हैं कि यह 150 एकड़ में फैला था l उसका जल अत्यंत ही मधुर और शीतल था l उसे पीने और नहाने मात्र से अनेक रोग ठीक हो जाते थे l उसकी लम्बाई चौड़ाई के सम्बन्ध में अनेक किंवदंतिया प्रचलित हैं l कहा जाता है कि एक बार एक ग्वाला कुछ बछड़ीयों को पानी पिलाने के लिए तालाब पर आया l बछड़ीयां पानी पीने के लिए तालाब में घुसी ही थीं कि तालाब के दूसरी ओर गायें आ गई l उन्होंने जब अपनी बछड़ीयों को देखा तो स्नेह के वशीभूत हो वे भी पानी में कूद पड़ीं l एक ओर बछड़ीयां और दूसरी ओर से गायें पानी में तैरती चली आ रही थीं, पर तालाब का कोई पारावार न था l कहते हैं बछड़ीयां चलते चलते थक कर डूब गईl
तब नगरवासियों ने मिलकर यह निर्णय लिया कि इस तालाब की लम्बाई को कम किया जाना चाहिए l तब तालाब में मिटटी डलवाई गई l इस प्राचीन तालाब के अवशेष आज भी अग्रोहा में मौजूद हैं l
सेठ हरभजशाह
एक किंवदन्ती के अनुसार एक समय किसी श्रीचंद नामक एक बड़े साहूकार व्यापारी ने ग्यारह सौ ऊंट केशर बेचने के लिए भेजी और अपने कारिंदों से कहा कि इन ऊंटों की केशर एक ही व्यापारी के हाथों बेचना l श्रीचंद के कारिंदे अनेक नगरों व कस्बों में घूमते हुए महम पहुंचे l उस समय वहां का करोड़पति व्यापारी सेठ हरभजशाह अपने रहने के लिए एक विशाल हवेली बनवा रहा था l जब हरभजशाह को बताया गया कि इस प्रकार ग्यारह सौ ऊंट केशर बिकने आई है और उसे बेचने वाले एक ही व्यापारी को सारी केशर बेचना चाहते हैं और अभी तक उन्हें कोई ऐसा खरीददार नहीं मिला है तो हरभजशाह ने इसे अपनी आन-बान-शान के खिलाफ समझा l उसने अनुभव किया कि इससे उसके राज्य का सम्मान कम होगा l अत: उसने सारी केशर तगार में डलवाने तथा उसका मूल्य एक ही मुद्रा में चुकाने के आदेश दे दिया l उसने कहा कि केशर हवेली के रंग करने के काम आ जाएगी l
जब गुमाश्ते केशर को बेच वापिस पहुंचे और श्रीचंद ने विवरण सुना तो वह आश्चर्यचकित रह गया l वह अब तक अपने को ही सबसे सम्पन्न समझता था किन्तु अब उसे मालूम हुआ कि उसके समाज में सेठ हरभजशाह जैसे अग्रवाल भी बैठे हैं, जो अपनी जाति और राज्य की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए लाखों रूपये खर्च कर सकते हैं l उसके दिल में भी अग्रोहा को लेकर दर्द था l उसने मन में अनुभव किया कि सेठ हरभजशाह जैसे दानी और सम्पन्न व्यक्तियों के होते हुए अग्रोहा वीरान पड़ा रहा, यह उचित नहीं है l उसने उसी समय सेठ हरभजशाह को एक पत्र लिखा l पत्र में लिखा गया था कि जब तक उसकी पितृभूमि वीरान पड़ी है, यह सब धन-वैभव व्यर्थ है l कौन इसे देखेगा ? अत: मकान बनाने से पहले अग्रोहा बसाना जरूरी है l अन्यथा सिर ऊंचा कर चलने का कोई अधिकार नहीं l
सेठ हरभजशाह ने उस पत्र को बार-बार पढ़ा l उसकी आत्मा उसे बार-बार धिक्कारने लगी कि जब तक अग्रोहा नहीं बसता, उसका यह धन-वैभव व प्रतिष्ठा बेकार है l अपनी मूंछों और पगड़ी को रखना तभी सार्थक होगा, जब वह अग्रोहा आबाद कर देगा l उसने अपनी मूंछों को कटा दिया, पगड़ी उतार दी और प्रतिज्ञा की कि जब तक अग्रोहा नहीं बस जाएगा, वह मूछें नहीं रखेगा, पगड़ी नहीं पहनेगा, नंगे सिर रहेगा l उसने अग्रोहा से थोड़ी दूर पर दुकान खोली और यह घोषणा की कि जो भी व्यक्ति अग्रोहा में आबाद होगा, वह लोक या परलोक में भुगतान की शर्त पर मनचाही रकम का माल और राशि उससे उधार ले सकेगा l राजा रिसालू ने उसकी सब तरह की मदद करने का आश्वासन दिया और थोड़ी ही दूरी पर फौज की व्यवस्था कर दी, ताकि हरभजशाह और वहां की जनता को कोई परेशान न कर सके l जब अग्रवालों ने उसकी यह प्रतिज्ञा सुनी तो वे वहां आकर बसने लगे और धीरे-धीरे अग्रोहा बस गया l
शीला माता
लक्खी तालाब के समीप ही सतियों की मढ़ीयां हैं और वहां थेह के पार लगभग 300 कदम की दूरी पर शीला माता की मढ़ी या मंदिर है l शीला माता की अग्रवालों में बड़ी मान्यता है और प्रतिवर्ष भाद्रपद अमावस्या को दूर-दूर के अग्रवाल बंधु अपने बच्चों का मुण्डन कराने वहां बड़ी संख्या में आते हैं और वहां मेला जुटता है l अब इस मढ़ी के ऊपर मुंबई के सेठ स्व. तिलकराज अग्रवाल एवम उनके सुपुत्र शीतलकुमार अग्रवाल ने प्रचुर धन-राशि व्यय करके एक भव्य, मनोहारी मंदिर बनवा दिया है l इस मंदिर तक हरियाणा सरकार ने अब सडक भी बना दी है, जिससे यात्रियों को काफी सुविधा हुई है l शीला देवी के बारे में प्रचलित कथा इस प्रकार से है –
शीला कोट्याधीश सेठ हरभजशाह की पुत्री थी l हरभजशाह की कीर्ति और उसकी यशस्वी दान-गाथा उस समय चारों ओर फैली थी l जब शीला युवती हुई तो उसके विवाह की चिंता हरभजशाह को हुई l उसने वर की खोज में दूत इधर-उधर भेजे और सियालकोट के राजा रिसालू के दीवान महताशाह के साथ उसका सम्बन्ध निश्चित कर विवाह की तैयारियां बड़ी धूमधाम और चाव से हुई l सियालकोट से अग्रोहा बारात आई l हरभजशाह ने बारात की आगवानी और स्वागत में पलक-पांवड़े बिछा दिए l कोई कसर न छोड़ी l उसने अपार धनराशि पुत्री को स्नेहस्वरूप भेंट की l शीला ने बड़ी ही उमंगों के साथ पतिगृह में प्रवेश किया l वह बहुत ही गुणवती, सदाचारिणी और पतिव्रता थी l धीरे-धीरे उसके अनुपम सौन्दर्य और रूप की गाथा राजा रिसालू के कानों में पड़ी l वह उससे आकर्षित हो विवाह की इच्छा रखने लगा l मेहताशाह के रहते उसकी इच्छा का पूर्ण होना सम्भव नहीं था l अत: उसने चाल चली और मेहताशाह को उसने रोहतासगढ़ (सम्भवत: रोहतक) भेज दिया l मेहता का शीला पर पूर्ण विश्वास था, अत: वह उसे वहीं छोड़ रोहतासगद चला गया l उसकी अनुपस्थिति में राजा रिसालू ने शीला को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अनेक चालें चलीं, तरह तरह के प्रलोभन दिए किन्तु शीला ने उसकी एक ने चलने दी l सब तरह से विफल हो, उसने शीला को बदनाम करने के लिए अंतिम चाल चली l उसने किसी तरह से अपने नाम की खुदी अंगूठी उसके शयनागार में छिपाकर रखवा दी l
कुछ समय बाद महता जब रोहतासगढ़ से लौटा तो शयनगृह में सोने के लिए गया तो अकस्मात उसकी दृष्टि उस अंगूठी पर पड़ गई l अंगूठी पर रिसालू का नाम देखते ही वह आग-बबूला हो गया l उसे शीला के चरित्र पर संदेह हो गया l शीला ने अपनी पवित्रता के अनेक प्रमाण दिए l महताशाह से राजा रिसालू की चाल की ओर ध्यान न देने के लिए अनुनय-विनय की, किन्तु मेहताशाह का एक बार आशंका से ग्रस्त मन और अधिक गहराता ही गया l राजा रिसालू का षड्यंत्र सफल हुआ l मेहताशाह ने शीला का परित्याग कर दिया l हरभजशाह ने भी घटना की सूचना पा मेहताशाह को मनाने का प्रयत्न किया किन्तु विफल रहाl
शीला का मन इस प्रबल आघात से मर्माहत और आक्रान्त हो उठा l उसे स्वप्न में भी इसकी कल्पना न थी l वह वियोग में बिलखती, विलाप करने लगी l उसकी मन: स्थिति पागलों जैसी हो गई l एक दिन वह इसी शोक-संतप्त अवस्था में पतिगृह को छोड़ प्राण त्याग के लिए निकल पड़ी और असुध अवस्था में पितृ-गृह पहुंच गई l
उधर मेहताशाह को जब शीला द्वारा गृह त्याग का पता चला तो वह उदिव्ग्न हो गया l उसने अपने द्वारपाल हीरा सिंह और सेविका चन्द्रावती से सत्य जानने का प्रयत्न किया l चन्द्रावती ने तब सारा वृत्तांत उसे कह सुनाया l उसने बताया कि किस प्रकार रिसालू ने उस पतिव्रता नारी को डिगाने के लिए तरह-तरह की चालें चली और उसने उसका सामना किया l उसने उस घटना का विवरण भी दिया, जब शीला ने राजा रिसालू को उसके कृत्य के लिए बुरी तरह से फटकारते हुए उसे घर न आने की चेतावनी दी थी और राजा को उससे क्षमा मांग अपना पीछा छुडाना पड़ा था l उसने बताया कि शीला ने मेहताशाह की अनुपस्थिति में उसे एक क्षण के लिए भी अपने से पृथक न होने दिया और वह उसकी पातिव्रत्य एवम सतीत्व की पूर्ण साक्षी है l उसने मेहताशाह को इस बात के लिए धिक्कारा कि उसने एक पतिपरायणा नारी पर अकारण संदेह कर उसे घर छोड़ने को विवश किया l उसने आशंका प्रकट की कि हो सकता है कि उसने दुखी हो अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली हो l यदि ऐसा है तो उसका महान पाप महताशाह को भुगतना होगा और वह पाप सरलता से धुलने वाला नहीं है l
अब मेहताशाह को अपनी गलती का बोध होने लगा था l उसने अपने आप को कोसा कि व्यर्थ ही क्रोध में आकर उसने एक सती-साध्वी का अपमान किया और उसे घर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया l यदि उसने प्राण-त्याग दिए होंगे तो उसके पाप का प्रायश्चित सम्भव नहीं है l वह शीला की खोज में निकल पड़ा l उसे शीला का पता न था l वह एक स्थान से दूसरे स्थान, वन-बीहड़ और जंगलों में भटकने लगा l शनै:-शनै: उसकी मानसिक स्थिति विक्षिप्त की सी हो गई l जो भी मिलता, उससे पूछता कि क्या तुमने मेरी प्राणप्रिया शीला को देखा है? लोग उसे पागल समझ आगे बढ़ जाते l
उसकी दशा दीन-हीन हो गई l शरीर सूखकर काँटा हो गयाl किसी को विश्वास ही न होता कि यही मेहताशाह हैं l कोई उसे पागल बताता और कोई ढोंगी l
मेहताशाह इस तरह विलाप करते – करते एक दिन अग्रोहा पहुंच गया l हरभजशाह की एक सेविका ने उसे शीला-शीला चिल्लाते सुना l तब उसने जिज्ञासावश उससे पूछा कि तुम कौन हो और शीला को क्यों पुकारते हुए फिर रहे हो ? तुम्हें मालूम नहीं, शीला सेठ हरभजशाह की पुत्री है ? तुम उसका नाम लेते पकड़े गए तो मारे जाओगे l
मेहताशाह को शीला का नाम सुन बड़ा संतोष मिला l उसने कहा- इतने दिनों बाद पहली बार तुमने मेरी प्राण-प्रिया के नाम से जीवन दान दिया है l यदि तुम उसका पता ठिकाना बता दो तो वह उसका आभारी रहेगा l साथ ही उसने पूछा कि उसकी प्राण-प्रिया शीला जीवित है तो वह कहाँ मिलेगी ? वह कैसा अभागा है, जो अपनी प्राण-प्रिया के दर्शन तक नहीं कर पा रहा है l
सेविका ने उसकी बातों को प्रलाप समझा l उसका उत्तर दिए बिना वह वहां से चल पड़ी और शीला से मिलने पर उसने उसे सब वृतांत कह सुनाया l शीला ने अनुभव किया, हो न हो,वही उसका पति है, जो उसकी खोज में इस तरह मारा-मारा फिर रहा है l वह पति-दर्शन की कामना से व्यग्र हो घर से बाहर दौड़ी किन्तु हतभाग्य ! वह मेहताशाह के दर्शन कर पाती, उससे पूर्व ही उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे l अपने पति मेहताशाह को मृत पा वह पछाड़ खा गिर पड़ी l उसकी वेदना का कोई अंत न था l भाव विव्हल हो उसने अपने प्राण त्याग दिए l पति-पत्नी दोनों एकाकार हो गए l ज्योति-ज्योति में मिल गई l दोनों का एक ही चिता पर संस्कार हुआ l शीला शरीर से विमुक्त हो गई किन्तु अपने पवित्र पातिव्रत्य धर्म और निश्चल प्रेम की गाथा सदा-सदा के लिए इस धरा पर छोड़ गई l
उधर राजा रिसालू को जब मेहताशाह द्वारा घर त्यागने का पता चला तो उसने उसकी खोज प्रारम्भ की l डगर-डगर घूमता अग्रोहा पहुंचा और उसने वहां दूर अपना डेरा डाला l जब उसे मेहताशाह और शीला की मृत्यु के बारे में पता चला तो उसे बड़ा दुःख हुआ l उसे अपने आप पर ग्लानि अनुभव होने लगी l पश्चाताप से उसके हृदय फटने लगा और अपना स्यालकोट का राज्य पुत्र को सौंप स्वयं हरिभजन में लीन हो गया l
अग्रोहा में जिस स्थान पर राजा रिसालू ठहरा, उसी स्थान पर आज भी रिसालू टिब्बे के नाम से अवशेष मिलते हैं l वास्तव में वह एक टिब्बा है और सरकारी कागजातों में मौजा रिसालखेड़ा के नाम से उल्लेख मिलता है l यहाँ कुँए के चिन्ह, मकानों की दीवारें, ईंटें आदि अब भी देखने को मिल जाते हैं l
शीला के अमर प्रेम की स्मृति में अग्रोहा में शक्ति शीला माता मंदिर का निर्माण हुआ है l असंख्य लोग वहां पधारते हैं, माता की मनौती मनाते हैं, बच्चों का मुण्डन संस्कार आदि कराते व चढावा चढाते हैं l उनका विश्वास है कि माता की पूजा से उनकी सकल मनोकामनाएं पूर्ण होती है l प्रत्येक भाद्रपद अमावस्या पर वहां विशाल मेला भी लगता है l
अग्रोहा की रीत, एक रुपया व एक ईंट
महाराजा अग्रसेन व अग्रोहा राज्य के विषय में अनेक कथाएँ व किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं किन्तु उसमे एक मुद्रा-एक ईंट की किंवदन्ती सर्वाधिक लोकप्रिय है l इसके अनुसार वैभव की अवस्था में अग्रोहा में एक लाख घरों की आबादी थी l ये सब लोग अत्यंत समृधिशाली, संगठन प्रेमी और समाज हितैषी थे l जब भी वहां कोई नवीन बंधु बसने के लिए आता था तो वहां का प्रत्येक परिवार उसे एक मुद्रा और एक ईंट सम्मानपूर्वक भेंट करता था, जिससे वह तत्काल एक लाख मुद्राओं का स्वामी बन जाता और लाखों ईंटों से उसका मकान बन जाता था l एक लाख रुपयों से वह अपना व्यवसाय-व्यापार चला लेता, जिससे वहां किसी प्रकार की बेकारी, बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न न होती थी l यह परम्परा किसी कारणवश व्यापार में घाटा लगने अथवा प्राकृतिक आपदा के आने पर भी दोहराई जाती थी l इस परम्परा का पालन समानता के आधार पर नवागुंतक को भी करना पड़ता था और उसे भी नए बसने वाले परिवार को एक ईंट व एक रुपया देना पड़ता था l इस प्रकार पारम्परिक सहयोग व समानता की भावना पर आधारित होने के कारण इससे किसी प्रकार की हीनता या छोटे-बड़े की भावना पैदा नहीं होती थी l सभी दाता थे और सभी समान रूप से ग्रहणकर्ता l
हो सकता है कि इस किंवदन्ती में कुछ अतिश्योक्ति भी रही हो किन्तु इस से यह तो स्पष्ट ही है कि उस समय अग्रवाल समाज अपने वैभव के जितने चरम शिखर पर था, उतनी ही उसकी उदारता, दानशीलता, धार्मिकता और सामाजिक सहयोग एवम एकत्व अनुभूति की भावना बढ़ गई थी l इसी सहयोग, सहानुभूति एवम सबके सुख में अपना सुख देखने की व्यापक भावना तथा उदार दृष्टिकोण के कारण वे अग्रोहा में बसने वाले प्रत्येक परिवार को थोड़ी-थोड़ी सहायता देकर उसे आत्मनिर्भर बना देते थे, जिससे वह अपना स्वतंत्र, सम्मानित, आत्मस्वाभिमानपूर्ण जीवन व्यतीत कर सके l
बिना रक्त की एक बूंद बहाए समाज में समानता लाने तथा वैभव को बाटने का यह प्रयत्न इतिहास में अनुपम है l एक सबके लिए सब एक के लिए, सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय, पर आधारित ऐसा आदर्श अन्यत्र दुर्लभ है l
अग्रोहा के पतन सम्बन्धी गाथाएँ
अग्रोहा पर बार-बार आक्रमण हुए तथा वह अनेक बार उजड़ा और बसा l जब किसी गणराज्य के अधिवासी किसी आक्रान्ता की अधीनता स्वीकार नहीं करते थे, तो प्राय: आक्रमणकारी लौटते समय उनकी बस्तियों में लूटपाट करते और उसे आग लगा जाते थे l इससे अनेक बस्तियों के राख के अवशेष मिले हैं l अग्रोहा की खुदाई में भी मृण-मोतियों के साथ राख के ढेर मिले हैं l इससे स्पष्ट है, वह भी किसी समय जला था l इसके वृतांत को हरपतराय टांटिया ने अपनी पुस्तक “अग्रोहा दर्शन” में इस प्रकार दिया है –
बाबा ध्रुंगनाथ और भविष्यवाणी
एक बार एक योगी बाबा जिनका नाम ध्रुंगनाथ था, अपने एक शिष्य कीर्तिनाथ के साथ इस नगर में आए और यहाँ के सुरम्य और शांत वातावरण से प्रभावित हो समाधि लगाने का विचार किया और अपने शिष्य से कहा कि मैं समाधि लगाता हूँ l मेरे समाधि में रहने तक तुम इस नगरी से भिक्षा लाकर अपना काम चलाना और धूनी को चैतन्य करते रहना l इस प्रकार शिष्य को आदेश देकर बाबा ने समाधि लगा ली l
बाबा के आदेशानुसार कीर्तिंनाथ भिक्षार्थ नगर में गया और कुम्हारिन से रस्सी और कुल्हाड़ी लेकर वन में प्रस्थान किया तथा जंगल में लकड़ी काट-काट कर महात्मा जी की धूनी को प्रज्वलित रखने तथा उन्हें बेचकर अपनी आजीविका चलाने का उपक्रम करने लगा l इस तरह तपस्या करते-करते छ: मास की अवधि व्यतीत हो गई l
उस समय विदेशी आक्रमणकारीयों के आक्रमण भारत पर बार-बार होते रहते थे l ये आक्रमणकारी राजा द्वारा अधीनता स्वीकार न करने पर क्रुद्ध हो सबक सिखाने की दृष्टि से जाते-जाते नगर को जला जाते अथवा भयंकर तोड़-फोड़ और विनाश कर जाते l तत्कालीन समय में अग्रोहा वैभव के चरम शिखर पर था और आक्रमणकारियों के मुख्य मार्ग पर पड़ता था l उस समय योगियों को दिव्य दृष्टि प्राप्त थी l वे अपनी दृष्टि से होने वाली घटनाओं को पूर्व में ही जान लेते थे l सम्भवत: महात्मा ध्रुंगनाथ को भी अपनी दिव्य दृष्टि से ऐसी अनुभूति हुई कि अग्रोहा का शीघ्र ही विनाश होने वाला है l अग्रोहा में निवास करने और तपस्या करने के कारण उनमें अग्रोहावासियों के प्रति ममत्व की भावना उत्पन्न हो गई थी l वे उसके विनाश को अपने नेत्रों से नहीं देख सकते थे l इसलिए उन्होंने दयार्द्रहोकर अपनी तपस्या भंग करते हुए शिष्यों तथा कीर्तिनाथ के माध्यम से नगर में डोंडी पिटवा दी कि अग्रोहा का जल्दी ही विनाश होने वाला है l वहां आग बरसेगी और जिसको भी सुरक्षित बचना है, वह यहाँ से निकल जाए l
इस प्रकार कीर्तिनाथ और उसके साथियों ने आवाज लगा लगाकर नगर के भावी विनाश की सूचना नगरवासियों को दे दी l कुल्हाड़ी और रस्सी देकर सहायता करने वाली कुम्हारिन को भी सचेत कर दिया l जिन लोगों ने योगी की भविष्यवाणी पर विश्वास किया, वे नगर को छोड़कर किसी सुरक्षित स्थान पर चले गए किन्तु काफी संख्या में लोग इस भविष्यवाणी को कपोल कल्पित समझ वहीं रह गए l कुम्हारिन ने अपना डेरा-डंडा उठा कर पास ही के तीन मील दूर स्थित स्थान पर अपना तम्बू लगा लिया l जिस स्थान पर उसने डेरा लगाया, वहीं उसके नाम से एक गाँव बस गया, जिसका नाम “कुम्हारिया चक” पड़ा और आज भी वह अग्रोहा के समीप स्थित है l
योगीराज के बताए निश्चित समय पर अग्रोहा में भयंकर विनाश हुआ और अग्रोहा देखते-देखते राख का ढेर बन गया l वही राख का ढेर आज का लम्बा चौड़ा 566 एकड़ भूमि में फैला थेह है l थेह के नीचे मकानों, किले आदि के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते हैं l बाबा ध्रुंगनाथ की इस भविष्यवाणी के सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक उल्लेख भी मिलते हैं l
यह भी सम्भव है कि योगीराज के दूत, चेले, शिष्य आदि दूरस्थ स्थान पर भ्रमण करते रहते हों और अग्रोहा पर होने वाली भावी आक्रमण की पूर्व भनक पाकर उन्होंने उसकी जानकारी योगीराज ध्रुंगनाथ को दे दी हो और दयाभाव से प्रेरित होकर बाबा ध्रुंगनाथ ने उसकी सूचना कुम्हारिन तथा नगरवासियों को दे दी हो और बाद में योगीराज के शिष्यों ने इस घटना को भविष्यवाणी का रूप दे दिया हो क्योंकि इस प्रकार की चमत्कारिक घटनाएं अधिकाँश योगियों के साथ जुडी हुई पाई जाती हैं l जो भी हो, अग्रोहा के थेह में मिलने वाली राख और अंगारों के अवशेष इसी विनाशगाथा के साक्षी हैं l
सिकन्दर का आक्रमण और अग्रोहा का विनाश
अग्रोहा के विनाश सम्बन्धी एक अन्य वृत भी लोक प्रसिद्ध है l कहते हैं कि यूनान के बादशाह सिकन्दर ने भारत से स्वदेश लौटते समय अग्रोहा के वैभव की कहानी सुनी l उसने वहां की समृधि एवम वैभव से ललचाकर अपनी सेनाओं को उस पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया, किन्तु सफलता न मिलने पर भेदनीति का आश्रय लेते हुए उसने गोकुलचंद और रत्नसेन नामक दो राजवंशी पुरुषों को भारी प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लियाl
अमावस्या की एक घनघोर रात्री में जबकि अग्रोहावासी निद्रा में मग्न थे, इन देशद्रोहियों की सहायता से सिकन्दर की सेनाओं ने अग्रोहा पर आक्रमण कर दिया l गोकुलचंद और रत्नसेन, द्वारपाल और रक्षकों को धोखा देकर दुर्ग में प्रविष्ट हो गए और अपने ही बन्धुओं के विरुद्ध विदेशी सेना का सहयोग कर घोर विश्वासघात का परिचय दिया किन्तु अग्रोहा के वीर सैनिकों ने उनका दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया l बड़ा ही घमासान युद्ध हुआ l सिकन्दर ने अपनी पराजय देख विलियम को पूरे शस्त्र-बल के साथ सेना की सहायतार्थ भेजा l विलियम ने भयंकर रक्तपात किया l उसने नगर का द्वार तोड़कर चकनाचूर कर दिया l उधर सिकन्दर ने दूसरी ओर से धावा बोल दिया किन्तु अग्रोहा के सैनिक डटे रहे l इस प्रतिरोध में स्वयं सिकन्दर भी घायल हो गया किन्तु कहते हैं उस समय कुलघाती गोकुलचंद ने एक ओर नीचता की l उसने अग्रोहा के शस्त्रागार में, जहां भारी मात्रा में गोला-बारूद रखा था, आग लगा दी l इस अकल्पित विनाश दृश्य ने अग्रवीरों को हतोत्साहित कर दिया l शस्त्रों के अभाव में विशाल शत्रु सेना का सामना करना कठिन था l फिर भी वे वीरतापूर्वक लड़े और संघर्ष करते हुए अमरलोक सिधारे l
इस युद्ध में अग्रवीरों द्वारा प्रदर्शित महान शौर्य और पराक्रम से सिकन्दर अत्यधिक प्रभावित हुआ l उसने युद्ध से बचे राजकुमारों को बुलाया तथा उनके साथ वीरोचित व्यवहार करते हुए उनका राज्य लौटा दिया l दूसरी ओर गोकुलचंद और रत्नसेन की भर्त्सना की तथा कहा कि जब तुम अपनों के ही नहीं रहे तो हमारे कैसे बन सकते हो ? और उन्हें मौत के घाट उतार दिया l युद्ध की समाप्ति पर सह्स्त्रों स्त्रियाँ, जिनके पति युद्धभूमि में शहीद हो गए थे, अपने अपने पतियों के साथ जौहर की ज्वाला में हर-हर महादेव कहते हुए लक्खी तालाब के किनारे राज्य की बलि-वेदी पर अर्पित हो गई l इतिहास में जौहर की यह सर्वप्रथम घटना थी l इस प्रकार अग्रोहा की ललनाओं ने त्याग और बलिदान का इतिहास लिखा l
अग्रोहा की उस समय की स्थिति और सिकन्दर के आक्रमण को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है l किन्तु जो भी हो, उस समय अग्रोहावासियों की सामरिक क्षमता प्रबल थी l उन्होंने युद्धभूमि में प्रबल शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था l लगता है कि सिकन्दर के इस आक्रमण के बाद अग्रश्रेणी के लोग अग्रोहा के आसपास बसने प्रारम्भ हो गए थे और बाद में फिर वे अपनी स्वतंत्र सत्ता अग्रोहा में स्थापित करने में सफल हुए थे l
अग्रोहा के थेह एवम उनके पुरातात्विक अवशेष
आज अग्रोहा एक कस्बे के रूप में स्थित है, जहां पुराने अग्रोहा की स्मृति स्वरूप 566 एकड़ में 87 फुट ऊंचा विशाल थेह फैला हुआ है l इन थेहों से उसकी प्राचीनता एवम ऐतिहासिकता का बोध होता है l
अग्रोहा में फैले इन थेहों में उसके उत्थान पतन की गाथा छिपी पड़ी है l इतिहास की इस अमूल्य धरोहर को जानने के लिए पुरातात्विक विभाग एवम अन्य अनेक ब्न्धुयों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं l
इस सम्बन्ध में पुरातात्विक खनन एवम अध्ययन का सर्वप्रथम प्रयास 1888 ई. में सी.जे. रोजर्स ने किया l उन्होंने एक छोटे टीले की 16 फुट की गहराई तक खुदाई करवाई l इस खुदाई में राख के ढेर भी मिले, जिनसे पता चलता है कि यहाँ कभी भयानक अग्नि-काण्ड हुआ था l वहां कुछ अलंकृत ईंटे भी मिली, जिससे उस अनुश्रुति को बल मिला, जिसके अनुसार अग्रोहा आने वाले हर व्यक्ति को एक रुपया-एक ईंट भेंट की जाती थी l इसके अलावा उन्हें कुछ सिक्के, मनके, नग्न मूर्तियों के टुकड़े, मिटटी के खिलौने आदि भी मिले, जिन पर अग्नि-काण्ड के चिन्ह थे l इस खुदाई की रिपोर्ट रोजर्स ने केवल दो-ढाई पृष्ठों में दी l यद्दपि इससे अग्रोहा के विषय में कोई ठोस जानकारी नहीं मिली किन्तु डा. परमेश्वरी लाल गुप्त के अनुसार जो भी सामग्री मिली, उससे अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि अग्रोहा का जो रूप उस समय सामने आया, वह 12वीं शताब्दी का रहा होगा l इतिहास में 1194 ई. में अग्रोहा पर मोहम्मद गौरी के आक्रमण का उल्लेख मिलता है तथा कहा जाता है कि उसने अग्रोहा को जलाकर राख का ढेर बना दिया था l सम्भवत: ये अवशेष उसी काल के रहे होंगें l
इस के पश्चात 1938-39 में भारतीय पुरातत्व विभाग के निर्देशन में हीरालाल श्रीवास्तव ने अग्रोहा के थेह में परीक्षात्मक उत्खनन करवाया l इस खुदाई से पता चला कि टीले के नीचे एक सुनियोजित नगर की बस्ती थी l उसके मकान पक्की ईंटों से बने थे और निवास गृह एक दूसरे से अलग थे l कमरों में प्रवेश के लिए दरवाजे थे l वहां से मिटटी की कुछ मोहरें, जली हुई मूर्तियाँ, अनाज तथा जला हुआ हस्तलिखित ग्रन्थ, सोने के एक मनके सहित भी प्राप्त हुआ l ग्रन्थ के जल जाने से उसकी विषय वस्तु का पता तो न चल सका किन्तु लिपि के आधार पर उसका समय 9वीं शताब्दी अनुमान किया जाता है l डा. परमेश्वरीलाल गुप्त के अनुसार इतने प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ का वहां मिलना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसी किसी प्राचीन ग्रन्थ का ज्ञान बहुत कम है l दूसरी वस्तु जो इस खुदाई में मिली, वह है – मिटटी का पका हुआ एक फलक l उस पर 9वीं सदी की ही एक लिपि में संगीत का सरगम स नि ध पा मा गा रे सा अंकित है l संगीत के सरगम का इतना प्राचीन लिखित प्रमाण भी अब तक अज्ञात होने से पता चलता है कि अग्रोहा में उस समय भी संगीत कला अपने वैभव की चरम सीमा पर रही होगी l
खुदाई में मिटटी के बर्तनों के उभारदार अलंकृत डंडे, टोंटीदार करवे, हांडी, कटोरे, लोटे, छेददार बर्तन, धुपदानी, प्याले, तश्तरी, ताम्बे की तलवार, चम्मच, हाथ का कड़ा, कान के बुँदे तथा एक छोटे मंदिर के अवशेष भी मिले l इनसे पता चलता है कि उस समय वहां के नागरिक व्यवसायी होने के साथ आत्मरक्षार्थ युद्ध भी करते थे और मिटटी तथा धातुओं से बर्तन एवम औजार बनाने की कला उन्नत रूप में थी l तलवार की मूठों में मणि माणिक्य जड़कर कलाकारी करने की प्रथा भी थी l इन में सर्वाधिक सुंदर बर्तन की एक तश्तरी है, जिसपर छेद करके नक्शा बनाया गया है l चार रंग के बड़े सुंदर बाक्स हैं l एक अलंकृत छुनछूना है, दो गोल तश्तरियां हैं, प्रथम में मुख देखने के शीशे का आकार है और दूसरे पर पहिया बना है ल पक्की मिटटी के बने हुए खिलौनों में घोड़े, बैल, हाथी और कुत्ते हैं l एक बर्तन की टोंटी भी मिली है, जो मोर के आकार की है l इनमें सभी बर्तन कुषाण तथा गुप्तकालीन प्रतीत होते हैं l मंदिर की मूर्ति देखने से उस समय के मंदिरों की आकृति व बनावट के विषय में भी पता चलता है l घोड़ों के चित्रों से पता चलता है कि उस समय घोड़े सवारी के काम आते थे l
खुदाई से मिले ताम्बे के कड़े तथा कान के बूंदों से पता चलता है कि उस समय स्त्रियाँ नाना प्रकार के आभूषण धारण करती थीं और वहां आभूषण बनाने की कला विद्दमान थी l मंदिर के अलावा वहां बराह, कुबेर, महिषमर्दिनी दुर्गा की चार हाथों वाली मूर्तियाँ भी मिली हैं l कुबेर के धन के देवता हैं l इससे अनुमान होता है कि अग्रोहा के वैश्य लोग लक्ष्मी के साथ धन के अधिपति कुबेर की पूजा भी करते होंगे l ये मूर्तियों 9वीं सदी की अनुमान की जाती हैं l खुदाई से प्राप्त गृहस्थी के सामान – चकला, बेलन, सिल, लोढ़ा आदि इस तथ्य के परिचायक हैं कि उस समय अग्र परिवारों में इन सब वस्तुओं का प्रयोग होता था और गृहणियां गृहकार्य में दक्ष होती थीं l
स्वामी ओमानंद सरस्वती ने हरियाणा के मुद्रांक में अग्रोहा अग्रोहा से प्राप्त कुछ मुद्राओं का उल्लेख किया है l ये मुद्रांक मिटटी के मोहर की छाप हैं जो किसी पार्सल पर लगाई जाती थी l इसका उद्देश्य भेजी जाने वाली सामग्री की गोपनीयता एवम सुरक्षा को बनाए रखना था l इन मुद्राओं में एक की लिपि पहली-दूसरी सदी की है l एक कुषाणकाल लिपि में है, एक उत्तर गुप्तकाल की है, एक मुद्रा ईसा पूर्व की भी है l इस से प्रमाणित होता है कि अग्रोहा ऐसा नगर था जिसका सम्बन्ध ईसा पूर्व काल में विदेशों से था और वहां का वाणिज्य –व्यवसाय इतनी उन्नत अवस्था में था कि गोपनीय खरितों का आदान-प्रदान भी होता था l एक मुद्रांक तीसरी-चौथी शताब्दी के यौद्धएयगण के एक शासक का है, इससे अग्रोहा राज्य के दूसरे गुणों के साथ राजनैतिक सम्बन्ध का परिचय मिलता है l
अग्रोहा से प्राप्त विशिष्ट सामग्री उसके सिक्के भी हैं, जो सैंकड़ों की संख्या में विभिन्न लिपियों तथा चिह्नों को धारण किए हुए हैं l एच. एल. श्रीवास्तव ने जिन सिक्कों का अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है, उनमें चांदी के पांच सिक्के विशेष हैं, जो मिटटी के बर्तन में गड़े हुए मिले l ये सिक्के पश्चिमोत्तर देशों तथा ग्रीक-राजाओं के हैं, जिनका काल ईसा पूर्व दूसरी, पहली शताब्दी रहा l इन सिक्कों में अमिंटासआ की दास, अपोलोडोटेस स्टेटो और अमिंटास के सिक्के प्रमुख हैं l एक आहत मुद्रा भी है, जिसपर सूर्य वृक्ष आदि अंकित हैं l इन सिक्कों से यह प्रमाणित होता है कि यहाँ की बस्ती गुप्त काल के पूर्व की है, क्योंकि उस समय इन सिक्कों का चलन उठ गया था l
दुसरे बर्तन में 51चौकोर सिक्के भी बरामद हुए हैं, जिनपर एक ओर अग्रोदक अगाच्च जनपद (अग्रोहा में रहने वाले अगाच नामक जनपद का सिक्का, यह अगाच्च आग्रेय का प्राकृत रूप है)
लिखा है तो दूसरी ओर वृषभ या वेदिका की आकृति बनी हुई है l इन सिक्कों का अत्यधिक महत्व है क्योंकि उनसे पता चलता है कि वहां अग्रोहा जनपद का अस्तित्व था और यह अस्तित्व प्रमाणसम्मत है l
स्व. देवकीनन्दन गुप्त के अग्रवंश शोध संस्थान में संग्रहित सिक्कों में एक सिक्का कुषाण शासक विमकद्फिस का, एक उत्तरवर्ती कुषाण शासक का और एक गुप्तवंश का चांदी का सिक्का था l इन सिक्कों से प्रमाणित होता है कि कुषाण व गुप्तकाल में अग्रोहा का अस्तित्व विद्दमान था l इसके साथ वहां अन्य मिली मुद्राओं से इस बात की जानकारी मिलती है कि पहली-दूसरी सदी ई. पू. तक अग्रोहा में बाहर के लोगों का भी आना जाना था l सिक्कों के आधार पर यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा पूर्व की दूसरी शती में अग्र लोगों की अपनी एक श्रेणी एक ही जनसमूह के नाम थी l
1980 में की गई खुदाई में एक चकोर प्लेटफ़ार्मनुमा चबूतरा भी मिला l 1981 में इसके आसपास खुदाई करने पर पता चला कि वहां मूलतः कोई ऊंचा मंदिर रहा होगा किन्तु उसमे प्रतिष्ठित कोई मूर्ति नहीं मिली l इस धार्मिक स्थल के चार अलग-अलग स्वरूप दिखाई पड़ते हैं l यह चारों स्वरूप गुप्तकाल से मुस्लिम काल के बीच 700-800 वर्षों में बने बिगड़े हैं l पुरातत्व विभाग ने इस स्थल के चारों ओर के स्वरूपों की रेखाकृति भी उतारी है l इस स्थल से मिली एक मूर्ति पर शेषनाग अपने फण से छाया किए लगते हैं l एक अन्य मूर्ति खण्डित मुद्रा में है l इन खुदाइयों में 31x21x4.5 से.मी. की ईंटों से बने खंडहर, तीसरी- चौथी शताब्दी ई.पू. से दूसरी शताब्दी पूर्व तक के काले रंग की पालिश के बर्तन, लाल रंग के खुरदरे बर्तन, टेरीकोटा , पशु-पक्षियों की आकृतियाँ, मनके, गेंद, सिटिली, लोहे और ताम्बे से बनी वस्तुएं तथा दूसरी शताब्दी ई.पू. के पश्चात के अवशेषों में टेरीकोटा, खिलौना गाडी, तस्तरी, लोहे और ताम्बे के बर्तन, कांच की चूड़ियों के टुकड़े तथा बहुमूल्य पत्थरों से बनी वस्तुएं हैं l
पुरातत्व विभाग, निदेशालय हरियाणा सरकार ने 1978-79 की रिपोर्ट में लिखा था कि – यह स्थान महाभारत में वर्णित आग्रेय गणराज्य की राजधानी था l ऐसा विश्वास है कि इसे अग्रवाल समुदाय के महाराजा अग्रसेन ने बसाया था l
अग्रोहा की खुदाई से प्राप्त कुछ वस्तुएं विभिन्न संग्रहालयों में भी सुरक्षित रखी गई हैं l वहां से प्राप्त एक मुर्तिफलक लंदन के विक्टोरिया अल्बर्ट म्युजियम में हैं l चंडीगढ़ के संग्राहालय में भी यहाँ से प्राप्त तीन मूर्तियाँ हैं l
जो भी हो, अग्रोहा के खंडहर अपने में महान इतिहास छिपाए हैं l निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वहां से अब तक जो सिक्के व् प्रमाण मिले हैं, वे अग्रोहा के वैभव व उसकी प्रगति के स्पष्ट प्रमाण हैं l इनसे अनेकानेक तथ्यों की जानकारी हुई है, किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है l अग्रसेन और आग्रेय गणराज्य के विषय में अधिक जानकारी की लिए अत्यधिक अनुसन्धान एवम 87 फुट गहरे नीचे तक खुदाई की आवश्यकता है l प्राचीन इतिहास के विद्धानों और पुरातत्व विभाग को इस ओर ध्यान देना चाहिए l जैसा कि प्रभुदयाल मित्तल ने कहा है कि यह किसी जाति अथवा राज्य का प्रश्न न होकर राष्ट्रीय महत्व का प्रश्न है और उसकी खोज के लिए इसी दिशा में प्रयत्न होने चाहिए l
अग्रोहा के पुनरुद्धार सम्बन्धी प्रयत्न
अग्रोहा के विध्वंस होने के बाद अग्रवाल देश के विभिन्न भागों में फ़ैल गए और उनका अग्रोहा से कोई विशेष सम्बन्ध न रहा l अग्रोहा शताब्दियों तक खंडहर रूप में पड़ा रहा किन्तु किसी ने उसको सुधारने की आवश्यकता न समझी l इस बीच में कभी-कभी हरभजशाह द्वारा लोक-परलोक की शर्त पर ऋण दिए जाने अथवा दीवान नानूमल द्वारा वहां किला निर्माण के लिए कुछ-कुछ प्रयत्न हुए भी किन्तु विशेष सफलता न मिली l
किन्तु समय सदैव एक सा नहीं रहता l परिवर्तन सृष्टि का नियम है l 1893 में भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र ने अग्रवालों की उत्पति नामक पुस्तिका लिखी और अग्रवालों को ध्यान दिलाया कि अग्रोहा उनकी जन्मभूमि है और महाराजा अग्रसेन उनके आदि पुरुष हैं l 1888 और 1938 में हुए अग्रोहा के अवशेषों की खुदाई से पता चला कि यह स्थान कभी महाराजा अग्रसेन की राजधानी था और अग्रवालों के साथ इसका विशेष सम्बन्ध था l इससे अग्रवालों में अपनी पितृभूमि को लेकर कुछ सुगबुगाहट हुई किन्तु उसके पुनरुद्धार की दिशा में कोई सार्थक प्रयत्न न हुआ l अंतत: अग्रवालों के गुरु ब्रह्मानन्द ने इस सम्बन्ध में अलख व् जागृति उत्पन्न करने की चेष्टा की कि अग्रोहा उनकी आदि भूमि है और वे उसके निर्माण की सुध लें l
गुरु ब्रह्मानंद के प्रयत्नों से 1915 में भिवानी के सेठ भोलाराम डालमिया और लाला सांवलराम ने अग्रोहा में एक गौशाला की स्थापना की और 1939 में सेठ रामजीदास बाजोरिया ने वहां एक धर्मशाला तथा महाराजा अग्रसेन जी का मंदिर बनवाया, जो आज भी विद्दमान है l इसके साथ ही सेठ विश्वेश्वरदयाल हालवासिया ट्रस्ट ने धर्मशाला के समीप ही एक कुँए और प्याऊ का निर्माण कराया l
अग्रवाल समाज में उत्पन्न चेतना को देखते हुए 1918 में सेठ जमनालाल बजाज की प्रेरणा से अग्रवाल महासभा की स्थापना हुई और 1919 में महासभा का अधिवेशन वहां हुआ, जिसमें अग्रोहा निर्माण का संकल्प व्यक्त किया गया l 1952 में उनके पुत्र स्वर्गीय कमल नयन बजाज की अध्यक्षता में वहां पुन: सम्मेलन का आयोजन हुआ किन्तु इस मध्य में अग्रोहा निर्माण की कोई योजना सिरे न चढ़ सकी l
1965 में मास्टर लक्ष्मी नारायण अग्रवाल ने अग्रोहा में महाराजा अग्रसेन इंजीनियरिंग कालेज की स्थापना हेतु महाराजा अग्रसेन इंजीनियरिंग एंड टेक्निकल सोसाइटी के नाम से अग्रोहा के थेह के समीप 234 एकड़ जमीन खरीदी l वहां मंडी बसाने पर भी विचार हुआ किन्तु सफलता न मिली l
अंतत: 1975 में अग्रोहा में निर्माण की वेला उस समय आई, जब रामेश्वरदास गुप्त के प्रयत्नों से दिल्ली में 5-6 अप्रैल, 1975 को अखिल भारतीय अग्रवाल प्रतिनिधि सम्मेलन का आयोजन हुआ और उसमें अग्रोहा निर्माण का संकल्प लिया गया l परिणाम स्वरूप 1975 में अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन और 1976 में अग्रोहा विकास ट्रस्ट के गठन हुआ l 29 सितम्बर 1976 को अग्रोहा में निर्माण कार्य हेतु सोसाइटी ने अपनी 23 एकड़ भूमि ट्रस्ट को प्रदान कर दी l सर्वप्रथम 22 कमरों की धर्मशाला का उद्घाटन हुआ, जिसमें तिलकराज अग्रवाल का विशेष योगदान रहा l उसके बाद 31 अक्तूबर 1982 को महाराजा अग्रसेन मंदिर का उद्घाटन सम्पन्न हुआ l उसमें हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल एवम राजीव गाँधी भी पधारे l
उसके बाद महालक्ष्मी मंदिर का निर्माण प्रारम्भ हुआ और 28 अक्तूबर 1985 को इसमें कुलदेवी महालक्ष्मी जी की प्रतिमा स्थापित की गई l मंदिर के प्रारम्भिक निर्माण कार्यों में बनारसी दास गुप्त, श्रीकिशन मोदी, रामेश्वरदास गुप्त, तिलकराज अग्रवाल, सीताराम जिंदल, ओमप्रकाश जिंदल आदि का विशेष योगदान रहा l
अग्रोहा में निर्माण कार्यों को तब विशेष गति मिली, जब नन्द किशोर गोइन्का ने अग्रोहा निर्माण समिति का तथा उनके सुपुत्र जी.टी.वी. के चेयरमैन सुभाषचंद्र ने ट्रस्ट के अध्यक्ष पद का कार्यभार सम्भाला l आपने अग्रोहा के निर्माण कार्यों को विशेष गति दी तथा उनके पद सम्भालने के बाद अग्रोहा में नए-नए मन्दिरों के गुम्बद निरंतर ऊंचे होते ही गए l
अग्रोहा में 300x400 फुट का विशाल शक्ति सरोवर बनवाया गया, जिसमें सुप्रसिद्ध कलाशिल्पी परीड़ा द्वारा भव्य समुद्रमंथन की झांकी का निर्माण किया गया l इस सरोवर का उद्घाटन स्वामी सत्यमित्रानन्द जी के सानिध्य में 1986 में हुआ और उसमें 41 पवित्र नदियों के जल की स्थापना की गई l
उसके बाद ट्रस्ट परिसर में भोजनशाला, धर्मशाळा की प्रथम मंजिल पर 22 कमरों तथा शक्ति सरोवर पर 68 कमरों, भगवान मारुती की 90 फीट ऊंची प्रतिमा, विधादायिनी सरस्वती के मंदिर, नौकायन आदि का निर्माण हुआ l महालक्ष्मी मंदिर के आगे ही 120x160 फुट का एक विशाल हाल बनाया गया, जिसमें 5,000 व्यक्ति एक साथ बैठकर किसी भी कार्यक्रम का आनन्द ले सकते हैं l इसके अलावा वैष्णों देवी, तिरुपति बाला जी, अग्रेश्वर महादेव, भैरोंबाबा, हिमानी बाबा अमरनाथ, भगवान द्वारिकाधीश, रामेश्वरम धाम, संकटमोचन हनुमान, भगवान मारुति की चरणपादुका आदि के भव्य मंदिरों का निर्माण कराया गया l हनुमानजी की प्रतिमा के समीप ही मथुरा के अग्रबन्धुओं द्वारा विशाल बृजवासी भवन और उसके सामने ही आगरा के बन्धुओं द्वारा दो मंजिला आधुनिकतम सुख-सुविधाओं से युक्त एक विशाल अग्रसेन माधवी भवन बनवाया गया है, जिससे अग्रोहा में आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए आवास की कोई समस्या नहीं रही है l
ट्रस्ट परिसर का मुख्य द्वार भी अत्यंत कलात्मक एवम भव्य बनाया गया है और उस पर लगी हुई भगवान श्रीकृष्ण के गीतोपदेश तथा महाराजा अग्रसेन की मूर्तियाँ दूर से ही यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं l
इनके अलावा अग्रोहा में महाराजा अग्रसेन, भगवान राम, कृष्ण, शिव, शेषशायी विष्णु, गजग्राह, गंगावतरण आदि की भव्य झाकियों का निर्माण कराया गया, जो बड़ी ही चिताकर्षक हैं l
इसके अलावा बच्चों के मनोरंजन के लिए शानदार अप्पूघर, वाटरफाल, नौकाविहार के लिए नौकायन, विशाल डायनासोर आदि का निर्माण कराया गया है l
देश में अब तक चार धाम थे l अग्रोहा को अग्रवालों के पांचवे धाम की संज्ञा दी गई है l अग्रोहा में आने वाले यात्रियों को पाँचों धामों के दर्शन एक साथ ही हो सकें, इसके लिए अग्रोहा में महाराजा अग्रसेन और महालक्ष्मी के साथ-साथ बद्रीनाथ, रामेश्वरमधाम, जग्गनाथपुरी एवम द्वारिकाधाम के निर्माण की योजना भी हाथ में ली गई है और इनमें करोड़ों रूपये की राशि से इन धामों का निर्माण कराया जा चुका है l
उधर थेह के दूसरी ओर माता शीला की मढ़ी पर शक्ति शीला माता के भव्य मंदिर का निर्माण सेठ तिलकराज अग्रवाल मुंबई द्वारा अग्रोहा विकास संस्थान के सहयोग से किया गया है l
अग्रोहा निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि अग्रोहा में महाराजा अग्रसेन मेडिकल कॉलेज एवम शोध संस्थान का निर्माण है l 278 एकड़ भूमि अधिग्रहीत कर 1000 शैय्याओं वाले इस विशाल अस्पताल का निर्माण महाराजा अग्रसेन मेडिकल एजुकेशन एंड साइंटिफिक रिसर्च सोसाइटी द्वारा कराया गया है l
इसके अलावा अग्रोहा में अग्रविभूति स्मारक भी बहुत सुंदर देखने योग्य बना है l इसमें महाराजा अग्रसेन जी, माता माधवी जी व 18 पुत्रों के दरबार के अतिरिक्त लगभग सभी अग्रमहापुरुषों के सुंदर स्मारक बनाए गए हैं l परिसर में सुंदर शक्ति सरोवर का निर्माण किया गया है l यहाँ यात्रियों के ठहरने की सुंदर व्यवस्था बना रखी है l
अग्रोहा को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने तथा उसे रेलवे द्वारा जोड़ने की घोषणा भी सरकार द्वारा की गई है और इस सम्बन्ध में रेल विभाग द्वारा लाइन बिछाने की दिशा में कार्य जारी है l
आज भी अग्रोहा में निर्माण कार्यों की यह श्रृंखला अविरत रूप से चालू है और अग्रोहा अग्रवालों के प्न्चम्धाम के रूप में ही नहीं, विश्व के श्रेष्ठ दर्शनीय पर्यटन स्थल के रूप में भी स्थान बनाता जा रहा है l
अग्रोहा के दर्शनीय स्थल
1976 से पूर्व अग्रोहा एक वीरान स्थल था l यहाँ तक कि भवन निर्माण के लिए जल की व्यवस्था भी हिसार आदि समीपस्थ क्षेत्रों से करनी पड़ती थी, आज वही अग्रोहा अग्रवालों के पांचवें धाम एवम विश्व के सुंदर दर्शनीय स्थलों में से एक का रूप धारण कर चुका है l वहां बड़े-बड़े मेलों, समारोहों का आयोजन होता है और प्रतिदिन देश विदेश से यात्री आकर अपने को कृत्य अनुभव करते हैं l
अग्रोहा के दर्शनीय स्थलों को मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है –
अग्रोहा धाम ( अग्रोहा विकास ट्रस्ट )
अग्रोहा का सबसे मुख्य दर्शनीय स्थल अग्रोहा धाम है, जो महाराजा अग्रसेन राष्ट्रीय राजमार्ग 10 पर स्थित है l इसका विकास अग्रोहा विकास ट्रस्ट द्वारा अग्रवालों के पांचवे धाम के रूप में करवाया जा रहा है l इस धाम में अनेकानेक मंदिर एवम दर्शनीय स्थल हैं, जिनका विवरण संक्षिप्त रूप से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है –
कुलदेवी महालक्ष्मी मंदिर - अग्रोहा के मंदिरों में यह सबसे प्रमुख है और ट्रस्ट परिसर अग्रोहा धाम में मुख्य द्वार के बिल्कुल सामने स्थित है l इसमें महालक्ष्मी की बड़ी ही भव्य प्रतिमा स्थापित है l महालक्ष्मी अग्रवालों की कुलदेवी है और अग्रवालों को वर प्राप्त है कि जब तक उनके कुल में महालक्ष्मी की पूजा होती रहेगी, तब तक वे उनके वंश तथा धन धान्य की वृद्धि करती रहेंगी l यह मंदिर पूरे भारत ही नहीं, विश्व के कतिपय लक्ष्मी मंदिरों में विशिष्ट स्थान रखता है l प्रतिमा के समीप ही महाराजा अग्रसेन, शेषशायी भगवान् विष्णु, गजग्राह आदि की मनोहर झाकियां हैं l मंदिर का गुम्बद 180 फुट ऊंचा है और स्वर्णमंडित होने से दूर से ही यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता हैl
28 अक्तूबर 1985 को शरद पूर्णिमा के अवसर पर इस मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा हुई और सिद्ध पीठ के रूप में इसकी मान्यता है l यहाँ मनौती मनाने से इष्ट सिद्ध होती है, ऐसी मान्यता है l
महाराजा अग्रसेन मंदिर – कुलदेवी महालक्ष्मी मंदिर के दायीं ओर ही यह मंदिर स्थित है l इससे अग्रवालों के कुलाधिपति महाराजा अग्रसेन की मनोहारी प्रतिमा विधमान है l मंदिर का निर्माण जनवरी 1979 में प्रारम्भ हुआ और 31 अक्तूबर 1982 को इसे जनता के दर्शनार्थ खोला गया l मंदिर के सामने ही महाराजा अग्रसेन से सम्बन्धित एक ईंट एक रुपया सहित विभिन्न झाकियों को प्रदर्शित किया गया है l
वीणावादिनी सरस्वती का मंदिर – लक्ष्मी के साथ सरस्वती की भी आराधना आवश्यक है l बिना विवेक बुद्धि के लक्ष्मी स्थायी नहीं रहती l इसलिए अग्रोहा में कुलदेवी महालक्ष्मी के मंदिर के समीप ही इस मंदिर का निर्माण किया गया है l इसमें माँ वीणावादिनी की बड़ी ही दिव्य प्रतिमा है l सन 1993 में शरदपूर्णिमा के अवसर पर इस मंदिर पर इस मंदिर को जनता के दर्शनार्थ खोला गया और 24 अक्तूबर 1999 को इस में स्वर्ण कलश की स्थापना की गई l
भगवान विष्णु मंदिर – यह मंदिर अत्यंत भव्य है l इसमें भगवान विष्णु की बड़ी ही भव्य प्रतिमा है l
शक्ति सरोवर – मंदिर के ठीक पृष्ठ भूभाग में 300x400 फीट के आकार में यह विशाल शक्ति सरोवर बना है l इस में देश की 41 नदियों के पावन जल की स्थापना की गई तथा 1986 में भारतमाता मंदिर के संस्थापक सत्यमित्रानन्द जी गिरी द्वारा इसका उद्घाटन किया गया l सरोवर के मध्य में समुद्र मंथन की अत्यंत ही सुंदर झांकी बनी है तथा चारों ओर प्रथम मंजिल पर 68 कमरों का निर्माण करवाया गया है l इस सरोवर पर पूर्णिमा, अमावस्या एवम अन्य धार्मिक अवसरों पर स्नान करने हेतु दूर-दूर से यात्री आते हैं l शक्ति सरोवर का द्वार भी कलात्मक है और उसकी शोभा में चार चाँद लगाता है l
वैष्णों देवी की गुफा एवम मंदिर – सुप्रसिद्ध वैष्णों देवी मंदिर के अनुकरण पर अग्रसेन मंदिर के प्रथम तल पर विशाल गुफा बना कर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है l मंदिर के मध्य ही माँ वैष्णों देवी की भव्य पिंडी स्थित है, जिसके दर्शन करने के लिए माँ के भक्त दूर-दूर से आते हैं l यह मंदिर वास्तुकला का श्रेष्ठ रूप प्रदर्शित कर्ता है l इस मंदिर का उद्घाटन 24 अक्तूबर 1999 को अग्रोहा मेले के अवसर पर नन्दकिशोर गोइन्का के द्वारा किया गया l
तिरुपति बालाजी मंदिर – तिरुपति बालाजी की बड़ी ही मान्यता है और दक्षिण भारत के सबसे बड़े और सुप्रसिद्ध मंदिरों में उसकी गणना होती है l अग्रोहा धाम पधारने वाले यात्रियों को भी उसके दर्शन हो सकें, इस हेतु अग्रोहा धाम में भी प्रथम तल पर पावन तिरुपति बालाजी मंदिर का निर्माण कराया गया है l इसमें स्थित बालाजी की प्रतिमा बड़ी ही मनोहारिणी है l
द्वारिकाधीश मंदिर – अग्रोहा में अग्रवालों को पाँचों धामों के दर्शन एक साथ हो सके इस हेतु वहां कुलदेवी महालक्ष्मी तथा महाराज अग्रसेन के अलावा अन्य चारों सुप्रसिद्ध धामों के निर्माण का निर्णय लिया गया और इसी सन्दर्भ में इस विशाल द्वारिकाधीश मंदिर का निर्माण ब्रजवासी भवन की पृष्ठभूमि में कराया गया l इस मंदिर में भगवान द्वारिकाधीश तथा अन्य प्रतिमाएं अत्यंत ही भव्य और चिताकर्षक हैं तथा मंदिर को बड़े ही कलात्मक रूप से बनाया गया है l मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं की विधुत झांकियां भी दर्शनार्थियों को मन्त्रमुग्ध करने वाली हैं l
रामेश्वरम धाम - शक्ति सरोवर के पीछे स्थित यह रामेश्वरम धाम भगवान भोलेनाथ के भक्तों के लिए वरदानस्वरूप है और दक्षिण में समुद्र तट पर स्थित रामेश्वरम धाम के दर्शन कराता है l मुख्य मंदिर में नान्दी, गणेश आदि की प्रतिमाएं बड़ी भव्य हैं l इसके साथ ही अन्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों की भी स्थापना की गई है l मंदिर के द्वार के समक्ष अग्रवालों के 18 गोत्रों से सम्बन्धित 18 मढ़ीयों का भी निर्माण कराया गया है l
भगवान मारुति की 90 फीट ऊंची प्रतिमा एवम संकटमोचन मंदिर – अग्रोहा धाम का एक विशेष आकर्षण है हनुमान जी की विशाल 90 फीट ऊंची ऊंची प्रतिमा l यह सम्भवत: हनुमान जी की सबसे ऊंची एवम विशाल प्रतिमा है l प्रतिमा के समीप पर्वतीय स्थल पर बने विभिन्न दृश्य भी अत्यंत प्राकृतिक हैं l इस प्रतिमा के नीचे संकटमोचन हनुमान जी का मंदिर है l इस मंदिर में अग्रोहा धाम में खुदाई के समय निकली हनुमान जी की प्रतिमा के साथ भगवान बजरंगबली की प्रतिमा की स्थापना की गई है l प्रत्येक चैत्रशुदी एवम कार्तिक मॉस की पूर्णिमा को यहाँ भव्य मेले लगते हैं, जिनमें देश भर से हनुमान जी के भक्त पधारते हैं और मंदिर के दर्शन कर अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं l मेले के अवसर पर सवामनी चढाने, रात्रि जागरण और भव्य कार्यक्रम भी होते हैं l यहाँ के हनुमान जी की सिद्ध सालासर और मेहंदीपुर धाम के समान बड़ी मान्यता है और उसकी मनौती मनाने से भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, ऐसी मान्यता हैl
बाबा अमरनाथ की बर्फानी मूर्ति – मंदिर के ऊपरी भाग में बाबा अमरनाथ की बर्फानी मूर्ति की भी स्थापना की गई है, जिसमें बाबा अमरनाथ की हिम से बनी आकृति के दर्शन निरंतर भक्तों को प्राप्त होते रहते हैं l
अग्रेश्वर महादेव मंदिर – बृजवासी अतिथि भवन के बाहर बने इस मंदिर में अग्रेश्वर भगवान महादेव के साथ-साथ बांके-बिहारी भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य देवी-देवताओं के विग्रह स्थापित हैं l इस मंदिर का शुभारम्भ 22 अप्रैल, 1997 को पूज्य कार्ष्णि गुरु शरणानन्द जी महाराज के करकमलों द्वारा हनुमान जयंती के अवसर पर हुआ l
चरणपादुका मंदिर – अग्रोहा में खुदाई करते समय भगवान मारुति की एक प्रतिमा प्राप्त हुई l इस प्रतिमा की प्राप्ति से अग्रोहा का महत्व हनुमान जी के धाम के रूप में और बढ़ गया तथा दूर-दूर से दर्शनार्थी हनुमान जी की इस प्रतिमा के दर्शन हेतु आने लगे l इस प्रतिमा की स्थापना संकटमोचन हनुमानमंदिर में कर प्राकट्य स्थल पर भगवान मारुति का चरणपादुका मंदिर बना दिया गया l इस मंदिर के दर्शन कर भगवान मारुति जी के भक्तों को बड़ी ही शान्ति मिलती है l
अन्नपूर्णा देवी मंदिर – माता अन्नपूर्णा विश्व का भरण-पोषण करने वाली देवी है l यह पार्वती माता का ही स्वरूप है तथा कृषि विज्ञान की जननी भी वही मानी जाती है l अग्रवाल समाज भी कृषि व्यवसाय से सम्बन्धित है l इसलिए अग्रोहा में माँ अन्नपूर्णा के मंदिर की भी स्थापना की गई है l
भैरों बाबा मंदिर और रज्जू मार्ग – अग्रोहा में माँ वैष्णों देवी का मंदिर बना कर उसका सम्बन्ध रज्जू मार्ग से बाबा भैरू के मंदिर से जोड़ा गया है l मान्यता है कि माँ वैष्णों देवी की यात्रा तब तक सम्पन्न नहीं होती, जब तक भैरव बाबा के दर्शन नहीं कर लिए जाते l इसलिए भैरव बाबा के इस मंदिर की स्थापना वैष्णों देवी के मंदिर से कुछ ही दूर माँ सरस्वती के गुम्बद स्थल पर की गई है l इससे अग्रोहा धाम पधारने वाले दर्शनार्थी माँ वैष्णों देवी के साथ भैरों बाबा के दर्शनों का भी लाभ प्राप्त कर सकते हैं l
जगन्नाथपुरी धाम – अग्रोहा धाम के पूर्व में चारों धामों में से एक श्री जगन्नाथ धाम की भी स्थापना की गई है l इस मंदिर की नींव अग्रोहा मेले के अवसर पर रख दी गई थी l इस मंदिर के साथ साथ अग्रोहा में बद्रीनाथ धाम का निर्माण कार्य को भी हाथ में लिया जाएगा l इनसब के निर्माण से अग्रोहा वास्तव में पाँचों धाम का एकमात्र केंद्र हो जाएगा l
अग्रसेन माधवी भवन – भगवान मारुति की प्रतिमा के समक्ष ही विशाल दो मंजिला अग्रसेन माधवी भवन आगरा के बन्धुओं की ओर से बनाया गया है l यह भवन पूर्णतया वातानुकुलित और आधुनिक सुख सुविधाओं से युक्त है l इसमें महाराजा अग्रसेन तथा माँ माधवी की भव्य प्रतिमाएं भी स्थापित की गई हैं l
डायनासोर – मुख्य मंदिर के समीप ही कृत्रिम पहाड़ी का निर्माण कर वहां विशालकाय डायनासोर का निर्माण किया गया है, जो सृष्टि के आदि वन्यजीवों का सुंदर परिचय देता है l
महाराजा अग्रसेन शोध केन्द्र – ट्रस्ट परिसर में ही महाराजा अग्रसेन शोध केन्द्र की स्थापना 1994 में डा. चम्पालाल गुप्त की प्रेरणा से की गई है l इस शोध केन्द्र हेतु अनेक दुर्लभ ग्रन्थ हरिराम गुटगुटिया द्वारा प्रदान किए गए l अग्र इतिहास में रूचि रखने वाले शोधार्थीयों के लिए यह स्थान महत्वपूर्ण है l
अन्य दर्शनीय स्थल – अग्रोहा धाम देश विदेश के यात्रियों का आकर्षण स्थल बन सके, इस हेतु वहां विशाल अप्पूघर की स्थापना कर विधुतचालित रेलों, झूलों, तरह-तरह के मनोरंजन साधनों एवम नौकायन की व्यवस्था की गई है, जो विशेष रूप से अग्रोहा आने वाले बच्चों तथा अन्य यात्रियों के मनोरंजन के श्रेष्ठ केन्द्र हैं l इसके अलावा मंदिर में भगवान राम, कृष्ण आदि की विद्दुत झाकियों के साथ गंगावतरण, समुद्र मंथन आदि की झाकियां भी दर्शनीय हैं l
शक्ति शीला मंदिर – ट्रस्ट परिसर से कुछ दूरी पर माता शीला की मढ़ी पर भव्य शक्तिशीला का मंदिर है l इस मंदिर का निर्माण सेठ तिलकराज अग्रवाल द्वारा अग्रोहा विकास संस्थान के सहयोग से कराया गया है l यह मंदिर शीला और मेहताशाह के अमर प्रेम की गाथा अपने में संजोए है और इस मंदिर का निर्माण लाल पत्थर से अत्यंत ही कलात्मक ढंग से हुआ है l इसमे शक्तिशीला के मढ़ी के साथ-साथ भगवान राधाकृष्ण, सीताराम, अष्टभुजा दुर्गा, शंकर-पार्वती, माँ शेरावाली, लक्ष्मी-पार्वती, हनुमान जी आदि के भव्य विग्रह स्थापत्यकला की दृष्टि से यह मंदिर उत्तरी भारत के श्रेष्ठ मंदिरों में से एक है और प्रतिवर्ष असंख्य यात्री उसके दर्शनार्थ आते हैं l माता की मढ़ी पर बच्चों के मुण्डन संस्कार की प्रथा भी यहाँ सदियों से प्रचलित है और भाद्रपद अमावस्या को यहाँ विशाल मेला लगता है l यहाँ मनौती मनाने और पत्र-पुष्प चढाने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, ऐसी लोकमान्यता है l वर्तमान में मंदिर की व्यवस्था एवम सार सम्भाल का कार्य शीतलकुमार अग्रवाल कर रहे हैं l
महाराजा अग्रसेन का प्राचीन मंदिर – अग्रोहा मुख्य मार्ग पर ही महाराजा अग्रसेन का प्राचीन मंदिर और धर्मशाला है l इस मंदिर का निर्माण कोलकाता के सेठ रामजीदास बाजोरिया द्वारा विक्रम सम्वत 1995 में कराया गया l इस मंदिर में संगमरमर से बनी हाथ में तलवार धारण किए महाराजा अग्रसेन की प्रतिमा सुशोभित है और यह अग्रसेन के प्राचीन मंदिरों में माना जाता है l अग्रोहाधाम का निर्माण होने के बाद में इस मंदिर का जीर्णोद्धार कर इसे नवीन रूप दिया गया है l
अग्रविभूति स्मारक – अग्रोहा में ही अखिल भारतीय अग्रवाल समेलन द्वारा महाराजा अग्रसेन फाऊंडेशन की स्थापना कर विशाल अग्रविभूति स्मारक का निर्माण कराया जा रहा है l इस स्मारक में देश की स्वतन्त्रता के लिए मर मिटने वाले शहीदों की प्रतिमाओं के साथ महाराजा अग्रसेन की प्रतिमा, विशाल संग्राहालय एवम अन्य स्थलों का निर्माण कराए जाने की योजना है l
महाराजा अग्रसेन मेडिकल कॉलेज एवम शोध केन्द्र – अग्रोहा के दर्शनीय स्थलों में महाराजा अग्रसेन मेडिकल कॉलेज एवम शोध केन्द्र भी है l अग्रोहा के ऐतिहासिक खण्डहरों के सामने 1000 शैयाओं वाला यह विशाल हस्पताल एवम मेडिकल कॉलेज दूर से ही अपने ऊंचे विशालकाय भवनों एवम भव्य प्रवेश द्वार द्वारा यात्रियों को आकर्षित करता है l
अग्रोहा के थेह – अग्रोहा में 566 एकड़ भूमि में फैला तथा 87 फुट ऊंचा यह थेह ऐतिहासिक एवम पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है और यहाँ एक महान संस्कृति के अवशेष छिपे पड़े हैं l कहते हैं कि यहाँ कभी महाराजा अग्रसेन की राजधानी थी और सब प्रकार से सुख समृधि का निवास था l थेह में प्राचीन नगर के अवशेष ईंटों से बने मकानों तथा नानूमल के किले के अवशेष आज भी वहां स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं l यह स्थान ऐतिहासिक महत्व का है l कहा जाता है कि इस थेह के नीचे महाराजा अग्रसेन का सोने का पलंग और विशाल खजाना भी दबा पड़ा है l पुरातत्व प्रेमियों के लिए यह स्थान अत्यंत ही महत्व का है और प्रति वर्ष हजारों की संख्या में यात्री इसका दर्शन कर महाराजा अग्रसेन की गौरवपूर्ण संस्कृति का स्मरण करते हैं l इसी थेह पर प्राचीन सतियों की मढ़ीयां हैं, जिन्होंने आत्मसम्मान की रक्षार्थ कभी जौहर ज्वाला में जल अपने प्राणों की आहुति दी थी l
श्री अग्रसेन वैष्णव गौशाला – अग्रोहा में हरियाणा की सबसे प्राचीन गौशालाओं में से एक है l 1915 में इसकी स्थापना सेठ भोलाराम डालमिया तथा लाला सांवलराम के प्रयत्नों से की गई l इसमें हजारों की संख्या में गायों को रखने की व्यवस्था है तथा आधुनिक सुविधाओं से युक्त इसका परिसर गोभक्तों के लिए दर्शनीय है l यहाँ पधारने वाले यात्रियों को इसका दर्शन करने से गौमाता का आशीर्वाद प्राप्त होता है l
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